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________________ प्रतिष्ठा RECASHARM KERSALCASEASNSAROBARAKAR निजोत्तमांगामरभूधराग्रे संस्नापितः पाश्वजिनेंद्रचंद्रः। क्षीराब्धिवृंदेन सुरेद्रवि॑दैः स्वं चिंतयेत्तजलपूतगात्रं ॥ २७२ ॥ अरु ऐसा ध्यान करै कि अपना मस्तक-रूपी मेरुपर्वतका अग्रभागमैं श्रीपार्श्वनाथ जिनेंद्र संस्थापित है अरु देवनका समूह करि क्षीरसमूद्र करि सिंचित किया ता जल करि मैं पवित्र भया हूं ॥ ३७२ ॥ पृथद्विधैकवाक्यांतं मुक्त्वोच्छ्वासं जपेन्नव । वारान गाथां प्रतिक्रम्य निषिद्यालोचयेत्ततः॥ ३७३॥ बहुरि णमोकार मंत्रके पंच पदनकूदोय दोय वाक्यका अर एक वाक्यका अन्तम उच्छ्वास छोडि नव वार ज । अरु गाथा सामायि| कोक्त पढ़ि करि प्रतिक्रमण करि फिरि बैठि आलोचना करै॥ ३७३ ॥ हस्तद्वये कनीयस्यायंगुलीनां यथाक्रमं । मूले रखात्रयस्योर्ध्वमग्र च युगपत् सुधीः ॥ ३७४ ॥ तस्यौहामादिहोमांतान्नमस्कारान् मिथः करौ। संयुज्यांगुष्ठयुग्मेन व्यस्तान् वांगेष्विति न्यसेत् ॥ ३७५ ॥ फिरि दोन्यू हाथकी छोटी आदि अंगुलीनका मूल मूलमें रेखात्रयके ऊपरि यथाक्रम एक काल, ॐ हीं आदि स्वाहान्त पंच नपस्कारने स्थापि दोन्यू हाथ. जोड़ि अंगुष्ट आदि क्रमतें विचक्षण अपना अंगमैं न्यास करै ॥ ३७४-३७५॥ ओं ह्रीं गयो अरहंताणं णमो सिद्धाणं स्वाहा । ओं हीं णमो भाइरीयाणं गामो उवज्झायाणं स्वाहा। ओं हीं णमो लोए सव्वसाहणं |स्वाहा ॥ एवं नववारं जपः, ततः प्रतिक्रमणं आलोचनं दोषगर्हण:निंदनं च कुर्यात् ॥ ओं हां णमो अरहताणं हां स्वाहा हृदये। ओं ह्रीं णमो सिद्धाणं ह्रीं स्वाहा ललाटे । ओ हणमो आइरीयाणं ह. स्वाहा शिरसि दक्षिणे। ओं ह्रौं णपो उवज्झायाणं ह्रीं स्वाहा शिरसि पश्चिमे। काओं हः णमो लोए सव्वसाहणं ह्रः स्वाहा शिरसि वापे । पुनस्तानेव मंत्रान् शिरसः प्राग्भागे शिरसि दक्षिण पश्चिमे उत्तरे च क्रमेण विन्यसेत् ॥ ओं नमोऽहते सर्व रक्ष रक्षा फट् स्वाहा ॥ अनेन पुष्पाक्षतं सप्तवारानभिमंत्र्य परिचारकानां शीर्षे परिक्षिपेत् ॥ों फट् किरिटि ACRORCHESTRATE ११५ Jain Educationine For Private & Personal Use Only widelimelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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