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प्रतिष्ठा
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मैं for ऐसे अरु सुगंधित अर सुंदर पुज जिनके ऐसे तंडुलन करि जिनेंद्र-चरण पूर्व दिशाकू पूजू हूं ॥ ऐसें अक्षत पूजा करनी ||४४५॥ ओं ह्रीं अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयज्ञेश्वर जिनमुनिभ्योऽक्षतम् । दुरंतमोहानलदीप्यदंशु कामन नष्टीकृतमाशुविश्वं ।
तद्वाणराजीशमनाय पुष्पैर्यजामि कल्पद्रुमसंगतै र्वा ॥ ४४६ ॥
मैं दुरंत जो मोहाग्नि ता करि प्रज्वल्यमान येह कामदेवनैं शीघ्र ही विश्व संसार नष्ट किया ताका वाणराशिका शांति श्रर्थि पुष्पन करि अथवा कल्पवृक्षन के पुष्पन करि पूजू हूं ॥ ऐसें पुष्प पूजा करनी ॥ ४४६ ॥
ह्रीं अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयज्ञेश्वरजिनमुनिभ्यः पुष्पाणि ।
पीयूषपिंड निर्धृतशर्करान्नयोगोद्भवैर्नयनचित्तविलासदक्षैः ।
चामीकरादिशुचिभाजनसंस्थितै व संपूजयाम्यशनबाधनबाधनाय ॥ ४४७ ॥
बहुरि घृत करा अरु अन इनका योग उत्पन्न अरु नेत्र अर हृदयकू' प्रिय अरु सुवर्णके पात्रमै स्थापित पीयूष -पिंड जो नैवेद्य ताकरि क्षुधावाधा-रोगकी शांति अर्थि जूहू ॥ ऐसें नैवेद्य पूजा करनी ॥ ४४७ ॥
अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयज्ञं श्वर जिनमुनिभ्यश्चरुं ।
अमित मोहतमोविनिवृत्तये घटिरत्नमणिप्रभवात्मभिः । श्रयमहं खलुदीपकनामकै जिनपदाप्रभुवं परिदीपये ॥ ४४८ ॥
बहुरि यो मैं निश्चय करि सुघट रत्ननिकी मणिकी उत्पत्ति-स्वरूप ऐसे दीपकन करि अप्रमाण मोहधिकारकी निष्टत्ति हेतु जिनेंद्र पदाग्र पृथ्वीनें प्रकाशित करू हू अर्थात् पूज' हू ॥ ऐसें दीपक पूजा करनी ॥ ४४८८ ॥
ह्रीं अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयज्ञेश्वर जिनमुनिभ्यो दीपं । धूपोछ्रायजनविधिषु प्रीणीताशेषदिकै
रुद्यद्वन्हावगुरुमलयापीडकान् संदहद्भिः ॥
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पाठ
१४.६
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