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________________ R PORANASHLORICKSINE अर्चे कर्मक्षषणकरणे कारणैराप्तवाक्यै र्यज्ञाधीशामिव बहुविधैधूपदानप्रशस्तैः॥४४९॥ बहुरि यज्ञ विधानमैं प्रसन्न किया है समस्त दिशा जाने अरु दीप्त अग्निमै अगुरु चंदन आदिका समूहने दहन कर, ऐसी भूप सुगंधि करि कर-क्षय करनमै कारणभूत ऐसे प्राप्तवचन हैं तिन करि यज्ञके स्वामीमने पूजू हूँ॥ ऐसें धूप-पूजा करनी॥४४॥ ओं ही अस्मिन प्रतिष्ठोत्सवे सर्वमज्ञ श्वरजिनमुनिभ्यो धूपं । निःश्रेयसपदलब्ध्यै कृतावतारैः प्रमाणपटुभिरिव । स्याद्वारभंगनिकरै र्यजामि सर्वज्ञमनिशममरफलैः ॥४५.॥ बहुरि मोक्षपदकी लब्धि अर्थि किया है अवतार जिननें ऐसे प्रमाणपटु स्याद्वाद वाक्यन करि ही में निरंतर सर्वज्ञर्ने देवोपुनीत फलनि करि पूज हूं।ऐसे फल-पूजा करनी॥ ४५०॥ ओं ही अस्मिन् पतिष्ठोत्सवे सवयज्ञ श्वर जिनमुनिभ्यः फलं । पात्रे सौवर्णे कृतमानंदजयषक् पूजाहतं विस्फुरितानां हृदयेऽत्र । तोयाद्यष्टद्रव्यसमेतैर्भूतमर्घ शास्तृणामग्रे विनयेन प्रणिदध्मः । ४५१॥ बहुरि हम सुवर्ण-पात्रमैं रचित अरु पूजक पुरुषनका हृदयमै पूजा योग्य ऐसे जलादि अष्ट द्रव्य करि भरया ऐसा अघनै शासन करने वारेनके अग्र विनय करि समर्पण करूंहूँ॥ऐसे अर्घ देना ॥ ४५१॥ ओं ही अस्मिन् प्रविष्ठोत्सवे सर्वयज्ञश्वरजिनेभ्योऽध । CRIDABALEKHABARSASUR Jain Education Themational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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