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________________ REA4%A6-- 0643 प्रांशुस्वर्णमाशिप्रभाततिभृता,गारनालोच्छलद् गंगासिंधुसरिन्मुखोपचितसत्पाथो भरेण विधा। जन्मारातिविभंजनौषधिमितेनोद्धृतगंधालिना चाये यागनिधीश्वरानद्यहृते निःश्रेयसः प्राप्तये ॥४४३॥ ऊंचा जो सुवर्ण मणिकी कांतिनं धारण करने वारा अरु झारीका नालासे उछलता गंगा सिंधु आदि नदी मुखमैं संचित सुंदर जलका ||3|| समूह करि मन-वचन-काय करि जन्मरूप बैरीका नाशकी औषधि समान अरु उठा है गंध करि भ्रमर जामै ऐसा जल करि मैं मेरा पापका हरणे ताई अर मोक्षसुखकी प्राप्तिके अर्थि योगमै आहूत पंच परमेष्ठीकू जूहूँ॥ ऐसें जलधारा देना ॥४४३ ॥ ___ों ही अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयज्ञेश्वर जिनमुनिभ्यो जलं । घुसृणमलयजातैश्चंदनैः शीतगंधे, भवजलनिधिमध्ये दुःखदोवाडवाग्निः। तदुपशमनिमित्तं बद्धकःनिमज्जद्-भ्रमरयुवभिरीडत् सांद्रसार्द्रप्रवाहैः ॥४४॥ येह संसार-समुद्र में दुःखको देनेवारो वड़वाग्नि समान ताप है ताका उपशम निमित्त बद्धपरिकर, अरु बलात्कार डूबते हैंभ्रपर युवान जाम, अरु श्लाघा योग्य है सघन प्रवाह जिनमैं ऐसे मृदु चंदनसँ उत्पन्न शीतल गंधन करि पूजू हूँ॥ ऐसें चंदन चढ़ावना ॥४४॥ ओं ही अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयज्ञेश्वर जिनमुनिभ्यश्चंदनं । शशांकस्पद्भिः कमलजननैरक्षतपदा धिरूढेः श्रामण्यं शुचिसरलताद्यैर्गुणवरैः। हसद्भिः साम्राज्याधिपतिचमनाः सुरभिभि जिना!हिषांची विपुलतरपुंजैः परियजे॥४५॥ चंद्रमा स्पर्द्ध ना क अरु अक्षयपदक प्राप्त ऐसे शुचिता सरलतादि गुण करि युक्त मुनिजनकू हँसनेवारे अरु चक्रवर्ती योग्य भोजन FORMACISCRESORRECSCOREAPESAKA १६ Jain Education For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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