SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिष्ठा १४४ Jain Educatio निर्धूतकलुषनिकरो जिनविंबस्थापको भवति ॥ ४४० ॥ ऐसें जो सुबुद्धि प्राणी होय सो दोसौ पचास स्थानानैं पूजे है, सो सर्व पापमल घोय करि जिनविंत्रकों स्थापन करनेवारो होय है ||४४० ॥ एतेषां निधिसंज्ञायागेशसर्गपतिमंडलाधीशाः । कथ्यते विधिविज्ञैः संकेतितमिदं ग्रंथसंबद्धं ॥ ४४१ ॥ विधिन जाननहारे इनकी निधि संज्ञा, यज्ञपति संज्ञा, संपत्ति संज्ञा, मंडलाधीश संज्ञा कहें हैं। येह ग्रंथका संकेत है ।। ४४१ ॥ अथ स्थापना अब स्थापना कह द प्रत्यर्थिवजनिर्जयान्निजगुणप्राप्तावनंताक्रमदृष्टिज्ञानचरित्रवीर्य सुखचित्संज्ञास्त्रभावाः परं । आगत्यात्रनिवेशितांकितपदैः संवौषडा द्विष्ठतो मुद्रारोपणसत्कृतैश्च वषडा गृहणीध्वमचविधिम् ॥ ४४२ ॥ शत्रूना समूह अर्थाभ्यंतर वरीन का समूहका अत्यंत जयतें निज गुण की प्रति होता संवा अनंत अरु क्रप-रहित दर्शन, ज्ञान, चारित्र, वीर्य, सुख, चैतन्यसत्ता-रूप है स्वभाव जिनका ऐसे सर्व जिन-पुनि हैं ते इहां आय संवशेष मंत्र निवेशन किया अरु द्विवार ठः ठः मंत्र करि स्थापन किया अरु मुद्रका आरोपण सत्कार करि तथा वक्टू पद करि संनिहित किया संता पूजा की विधि ग्रहण करो। ऐसे तीन बार पढ़े ॥ ४४२ ॥ ह्रीं अत्र जिनप्रतिष्ठाविधाने सर्वयागमंडलोक्ता जिनमुनय अत्रावतरत अवतरत तिष्ठत विद्युत ठः ठः मपात्रसंनिहितो भवत भवत वषट् इत्यादि त्रिवारं कुर्यात् । मंडलमध्ये सुप्रतीकपीठे स्वस्तिकोपरि स्थापयेत् । मंडल मध्य करिकामै पीठमै स्वस्तिक ऊपरि स्थापना करनी । For Private & Personal Use Only पाठ १४४ Inelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy