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________________ प्रतिष्ठा २०० FECONORRECAREERALLASSISTRUARLSV त्रैलोक्यवस्तुमनतस्मरणावबोधो येन स्वयं श्रवणगोचरतां गतेन। संजायते मुखरदौष्ठविघातशून्यो भूयाद् ध्वनिर्भवगदप्रसरातिहर्ता ॥ ८७७॥ तीन लोकमें वर्तमान बस्तुका मनन अर स्मरणको ज्ञान जाका स्मरणमात्र होय है अर दुष्ट आग्रहीपना अरु पाणिविघात इन शून्य ऐसा ध्वनि है सो संसाररूप रोगका फैलाव आतिका हरनेवारो होहु ॥८७७॥ भों ही दिव्यध्वनिपातिहार्यसंपन्नाय जिनायाघम् । ओं ह्रीं दिव्यध्वनिपातिहार्यसंपन्न जिनेंद्र अर्घ। यक्षेशपाणिलतिकांकुरसंगतानि तुर्याधिषष्टिगणनान्यपि देवनद्याः। वीचिप्रमाणि भवतो द्विकपार्श्वयोस्ते सच्चामराण्यघचयं मम निर्दलंतु ॥ ८७८॥ ह भगवान् ! चौसठि यक्षनिका हाथरूप लतिकाके अंकुरमें संगत कहिये प्राप्त अर चौंसठि संख्यावारे मानू गंगाके तरंग समान ऐसे चमर जे हैं ते अापके दोन्यू पसवाडे मैं होते स्ते मेरा पापका संचयने दूरि करौ॥८७८॥ ओं ह्रीं चतुःषष्टिचामरमातिहायसंपन्नाय जिनायाघम् । ओं हीं चपर प्रातिहाय संपन्न जिनेंद्रकू अघ। सिंहासने छविरियं जिनदेवतायाः केषां मनोवधृतपाप्महरी न वा स्यात् । स्याद्वादसंस्कृतपदार्थगुणप्रकाशोऽस्या मेस्तु निर्हतमदाविलजातशक्तः ॥ ८७६ ॥ अरु सिंहासनमें तरीक्ष विराजमान जिनदेवताकी छवि है सो कौन प्राणीनिका मनगत पापकी हरनेवारी न होय अर यातें हन्या है पद आदिकी कलुषित मात्र कीश जाकी ऐसा मेरे स्यावाद जो अनेकोत ताकरि संस्कारप्राप्त जे पदार्थके गुण तिनिका प्रकाश होहु ॥८६॥ भों ही सिंहासनमातिहार्यसंपन्नाय जिनायार्घम् । औं ही सिंहासनप्रातिहायसंपन्न जिनेंद्रकू अर्घ। SCAPESALMAGESGROर it Jain Educati o nal For Private & Personal Use Only library.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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