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________________ G प्रतिष्ठा - २६५ RAMME%%7--- संजायेत भवाववर्तसरणेः कुत्र स्थिरत्वं भवेत् । चदद्यापि भवांधकूपपतनादुद्धर्तये किं कृतं त्रिज्ञानप्रवणेशतादिविधिषु प्राप्तेष्वपि प्रायशः ॥ ८१८॥ अर स्वर्गका देव भी अशुभकर्मका उदयकरि कुक्क र पर्यायमें पडै है। अर श्वान भी कारण पाय शुभोदयकरि देव हो जाय है इस भव. परावर्तनकी स्थिरता कहां भी नहीं होय है ऐसा होते अवै भो बहु प्रकार तीन ज्ञानका पावना ईश्वरताका पावना आदि विधि प्राप्त भया भी इस भवांध कूपपतनसें नहीं उद्धार करूं तो कहा किया ? अर्थात यो विधि प्राप्त भई तब भी कहा लाभ है ? ॥१८॥ द्रव्यक्षेत्रजकालभावभवतः पंचप्रपंचोच्छलत्. संसारे कति नाम पंचतयतां प्राप्ताः न के प्राणिनः । धिग्मूढत्वमतंद्रित पितृसुतस्त्रीश्यादिपाशेषु वा । बद्ध्वा दुर्गतिषु प्रयांति भविनो दुःकर्मरजूद्धृताः ॥ १६ ॥ इस संसारमें कौन पाणी द्रव्य क्षेत्र काल भव भावरूप पंच प्रकार उछलता संसारनमैं कितने मरणने नहीं प्राप्त भये हा धिक है ! अर ऐ मूढपणाने पिता पुत्र स्त्री लक्ष्मी आदिकी पाशी वचन कायका योगनि करि तथा कर्मरूप जेबडी करि खेंच्या हुवा पाणी दुर्गेतिमें प्राप्त होय है॥१६॥ आकिंचन्यतपःशरण्यमभवद्येषां मनःकायकृद् योगैस्ते खलु मोक्षवर्यललनास्वायंवरं लंभिताः। जन्मापत्पथविच्युताः शिवसुखे भग्नाः वयंभाविन स्ते धन्यास्तदिहाशु मे समुदयो जागतु शुद्धात्मनः ॥ ८२०॥ -- CMCHAR २६५ Jain Educati o nal For Private & Personal Use Only nelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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