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________________ भविष्ठा २६२ Jain Educatio र तहां अपना शरीरकी ही नियत स्थिति नहीं तहां भिन्न जे पुत्र मित्र इनमें कहा आस्था है ? तथापि येह मूख येह मेरा गृह है, भर मेह मेरा द्रव्य है, अर येह पुत्र मित्र है, ऐसें अपनी बुद्धि करि पर वस्तुमें ग्रहण करे है ॥ ८०५ ॥ शीर्णानि सर्वाणि पुनर्न तृष्णा ज्वरेपि दाहं द्विगुणीकरोति । मूढात्मना तव निमज्यते वा संक्षीयते जन्मपरंपरायां ॥ ८०६ ॥ अर या संसारमें सर्ववस्तु जीर्णे होय है, एक तृष्णा नहीं जीर्ण होय है, अर तृष्णा ज्वरतें भी अधिक दाहने द्विगुण करें है अर मूढ गाणी ई तृष्णामें अनेक जन्म संतानमें डूब है अर जन्ममरण करे है ॥ ८० ॥ चित्तरंगाः सरितां जलानि मेघस्य पृथ्व्यंतरितानि भूयः । पश्चान्निवर्तत इहोपभुक्ता नैका कला कालविडंबनस्य ॥ ८०७ ॥ र कोई समयमें नदीनिका जलतरंग तथा मेघ का पृथ्वी में गये भये भो जन पाछा फिरि निविर्त है भर इहां भोगी हुई एक कला कहिये घटी कालचक्रकी नहीं निमडे है ॥ ८०७ ॥ प्रतिक्षणं त्वायुरिदं क्षिणोति मृत्युः पुरस्तात्समुपैति नॄणां । जनुर्जरामृत्युपथिस्थितानां न चित्रमेतद् विषयांध्यभाजां ॥ ८०८ ॥ अर देखो इह आयु क्षण क्षणमात्रमें तो क्षीण होय है अर मृत्यु प्राणोनिकी अग्र प्राप्त होय है तो जन्म जरा मृत्युका मार्गेमें स्थित घर विषयनिरूप अंधकार के मध्य तिष्ठता प्राणीके येह आश्चयं नहीं है ॥ ८०८ ॥ पदार्थस्य समागमं ते वियोगभावः समुपैति तस्मिन् । विद्वेष्टि मूढस्तदपायचित बध्नाति कर्माण्यपुनर्भवंति ॥ ८०९ ॥ For Private & Personal Use Only पाठ २६२ elibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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