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अथ भावना नाटयंति। अब अनित्यादि भावनाने ग्रंथकर्ता नटावै है । सो ही लौकांतिक देवोंका स्तुति उपदेश है।
पर्यायबुद्धया खलु वस्तुजाते विनश्वरे मोहवशाद् विधत्ते।
रतिं कदाचिद्विरतिं मनुष्यो रागद्विषाभ्यां विपरीतबुद्धिः॥८.२॥ ऐह राग पनि विपरीत भई है बुद्धि जाकी ऐसा पाणी पर्याय अपेक्षा विनश्वर ऐसा सकल वस्तुपात्रमें मोहका उदयतें कदाचित् रति कदाचित् अरति भावने धारण कर है ॥८०२॥
अनादिमिथ्यात्ववशात्कषायपरीतचंता न वशः स्वकस्य ।
वांतात्मभानामृत एष जंतुः ऋषीकहालाहलमेव भुंक्ते ॥ ८०३ ॥ येह माणी अनादि प्राप्त भया मिथ्यात्वका वशते कषायनिकरिवेष्टित चित्तवाला भापके वश नहीं रहता है फिर वमन किया है पात्मज्ञान12रूप अमृत जाने ऐसा येह प्राणी इंद्रियनिका विषयरूप हालाहलने ही खावै है ॥८०३॥
श्रीदेहपुत्रैश्यकलवचिंतां पुनः पुनर्यत्र गतौ प्रचिंतन् ।
तदाप्त्यनाप्तिप्रतिबद्धचेताः स्वयं स्वभावे स्थितिमुजहाति ॥८०४॥ अर जिस गतिमें गया तहां लक्ष्मी देह पुत्र अपनी उच्चता अर स्त्री इनकी चिंता होने वारंवार चिंतन करता अर इनका वियोग संयोगमें ही थेंबा है चित्त जाका ऐसा हुवा संता व स्वभावकै स्थिरता छोड है ॥८०४॥
वपुःस्थितियत्र न तल कास्था भिन्नेषु पुत्रादिषु चेत्तथापि । . गृहं ममार्थो मम पुत्रमित्र इत्थं परस्वत्वधिया वृणोति ॥८०५।।
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