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________________ प्रतिष्ठा २४३ Jain Education रोगाः स्वपायामपि यत्र लोकान्न प्रापुरेवं स्वत एव तुष्टिः । परंतु तुष्टिः स्वनियोगसिद्ध्यै पादद्वयं नैव जहौ जनन्याः ॥ ७४८ ॥ अर संसारमें भव्यजन ता समय रागकू स्वप्न में भी नहीं प्राप्त भये या कारण स्वतः ही तुष्टि है परंतु नियोगमात्रको सिद्धि अर्थ तुष्टिदेवी माताका चरणारविंदद्रयने नहीं छोडती भई ॥ ७४८ ॥ एवं कुमार्योऽमरनाथशिष्टिं विनैव मातुश्चरणार्चनायां । शक्तिभाजो हि वभूवुरीशप्रभाव एव प्रतिपत्तिहेतुः ॥ ७४६ ॥ ऐसे देवकुमारिका इंद्रराजकी आज्ञा विना ही माताका चरणारविंदकी सेवा में मशक्त होती भई यह प्रभाव श्रीजिनेंद्रका सर्व प्राप्ति हेतुभूत है ॥ ७४ ॥ तांबूलदायिन्यपरांघ्रि सेवासंवाहने कापि सुमज्जनेऽन्या । महानसे कापि सुमंगलार्थगानेऽन्यका नृत्यविधौ नियुक्ता ॥ ७५० ॥ केई माताकू' तांबूल देने में युक्त भई केई पादमर्दन में निपुण होती भई, कोई स्नान कार्यमें, केई रसोईका परिपाकमें, कोई मंगलीक गान में अर अन्य नृसका विधानमें नियुक्त होती भई ॥ ७५० ॥ प्रसाधनानि व्यजनं सुवस्त्रं सौगंध्य मुर्वी प्रतिमार्जनं च । आदर्शपालाब्जविभूषणानि काप्यादधौ मातुरुदप्रभूम्यां ॥ ७५१ ॥ कोई अलंकार शृंगार पात्रने, कोई बींजना पवन पात्रने, कोई वस्त्रने, कोई सुगंध चंदनादिकने, कोई पृथ्वीका शोधनमें अर्थात् बुहारीमें, कोई दर्पण पात्र काच विभूषणादिक माताके अग्र धारण करती भई ॥ ७५१ ॥ छंदः कला गोष्ठिपुराणचर्चामनोहरा याभिरहर्निशं तु । For Private & Personal Use Only पा २४३ library.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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