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प्रतिष्ठा
पाठ
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अर संचयरूप किया है पुण्यकार्य जानै ऐसी कीर्तिदेवी माताकी यशकी वृद्धि विस्तारती भई अर जय जय शब्दकरि अर स्तुतिकरि || माताका द्वार पर स्थितिने ग्रहण करतो भई ॥७४३ ॥
स्वयंप्रबुद्धस्य जनुर्विधाच्या मातुः कुतश्चित्परिवृद्धबुद्धिः।
नेति स्वयं चास्ति दधार बुद्धिर्बुद्धिप्रकाशं जनतार्थनीयं ॥ ७४४ ।। अरु स्वयं प्रबुद्ध भगवानको जन्म देनेवारी माताकी बुद्धिकी वृद्धि कोई कारणत भी नहीं है किंतु स्वयमेव ही है या बुद्धि नाम देवी अनेक जन्मनिकरि प्रार्थनीय बुद्धिका प्रकाशने आप ही धारण करती भई ॥७४४ ॥
रत्नावली यस्य गृहे पपात त्रिकालमाशार्थिजनस्य पूर्णा।
योति लक्ष्मीः स्वयमागतानामभ्यर्थितार्थादधि ददेऽर्थं ।। ७१५॥ अर जाका गृहमें रत्नदृष्टि त्रिकाल याचक जनाकी पूर्णता करनेवाली होती भई ताकारण लक्ष्मी जहां स्वतः ही है सो स्वयं पाए यावक जनोंका मनोरथसे अधिक द्रव्यने देती भई॥ ७४५॥
यस्योद्भवे नारकसंगतानां मुहर्तमाना किल शांतिरासीत ।
तन्मातुरीशित्वविधाप्रपूर्ती शांतिः स्वयं शांतिततिं ततान ।। ७४६ ॥ अर जा जिनेंद्रका उत्पत्ति समय नरकके प्राणीनिक भी मुहूर्त मात्र शांति' हुई ता कारण शांति देवी माताका इष्ट विधानकी पूर्तिमें आप ही शांतिसमूहने विस्तरतो भई ॥७४६ ॥
सर्वत्र जीवाभयदानदत्तेः पुष्टिः स्वयं जीवगणस्य चासीत् ।
चित्रं यतोऽचेतनरत्नराशिः पुष्टीबभूवात्मगणेन सार्धम् ॥ ७४७॥ अर पुष्टिदेवी है सो सर्वस्थानमें प्राणीमात्रकू अभयदान देनेमें नियुक्त होती भई और येह आश्चर्य है कि अचेतन रत्नदृष्टि भी आपका गण जो नाना प्रकार मणिनिकरि पुष्ट होता भया ॥ ७४७॥
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