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अथ चतुर्थवलयस्थापितभविष्यजिनपूजा। अब चौथा वलयस्थापित भविष्यज्जिन
पद्मा चलेत्यंकनलुप्तिकामा जिनस्य पादावचलौ विचार्य ।
यत्पादपद्मे वसतिं चकार सोऽयं महापद्मजिनोऽर्च्यतेऽर्धेः ॥ ५२०॥ बहुरि या लक्ष्मी चंचल है इस दोष लुप्तकरनेकी वांछावारी जिनेंद्रका चरणाने अचल विचारि जिनका चरणारविंदामें निवास करती। भई सो ये महापद्म जिनेंद्र मैं करि अनकरि पूजिये है ॥ ५२०॥
ओं ह्रीं महापद्मजिनायाम्। देवाश्चतुर्भेदनिकायभिन्नास्तेषां पदौ मूर्धनि संदधानः ।
तेनैव जातं सुरदेवनाम तमर्चये यज्ञविधौ जलाद्यैः॥ ५२१॥ बहुरि देव च्यार निकाय करि भेद प्राप्त भये हैं तिनके मस्तकमैं अपना चरणारविंदाने धारण करतो अर याही हेतुतं सुरदेव ऐसा नाम हुआ ताकू मैं यज्ञविधिमं जलादिकरि पूजू हूँ॥ ५२१ ॥
- ओं ही सुरप्रभजिनायाघम् । सेवार्थमुत्प्रेक्ष्य न भूतिदाता कारुण्यबुद्धयैव ददाति लक्ष्मीम्।।
यतो जिनः सुप्रभुरायसार्थं नामार्चयेऽहं विधिनाध्वरीयैः ।। ५२२॥ अरु जो प्राणीनिकी सेवामात्र प्रयोजन देखि करि संपदाको दाता नहीं है किंतु करुणाबुद्धि करि ही लक्ष्मीने देवै है। याही हेतु सुप्रभु &ा ऐसा सार्थक नाम प्राप्त भया ताकू यज्ञसंबंधी द्रव्यनिकरि मैं पूजू हूँ॥ ५२२ ॥
ओं ही सुमभुजिनायाघम् ।
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