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________________ प्रतिष्ठा १६७ वीर्यानुवादमधिसततिलक्षपादं द्रव्यस्वतत्त्वगुणपर्ययवावमयं । तत्तत्स्वभावगतिवीर्यविधानदक्षं संपूजये निजगुणाप्रतिपत्तिहेतोः ॥ ६१६ ॥ अरु सत्तर लाख पदसंयुक्त अरु द्रव्यका गुण पर्यायका कथनवारो अरु सार्थक अरु ताका स्वभाव गतिवीर्यका विधानमै प्रवीण ऐसा वीर्यानुवादपूवनै निज गुणको प्राप्तिके अर्थि मैं पूजू हूँ॥६६॥ ____ओं ही वीर्यानुवादांगायाघम्। नास्त्यस्तिवादमधिषष्टिसुलक्षपादं सप्तोद्धभंगरचनाप्रतिपत्तिमूलं । स्याद्वादनीतिभिरुदस्तविरोधमात्रं संपूजये जिनमतप्रसवैकहेतुम् ॥ ६१७ ॥ अरु साठ लक्ष पदयुक्त अरु सात प्रकार श्लाघ्य भंगनिको रचनाकी प्राप्तिका मूलभूत अरु स्याद्वाद नयनिकरि दूर किया है विरोधमात्र जामै अरु जिनमतका प्रकारका अद्वितीय कारण ऐसा अस्तिनास्तिप्रवादपूर्वनै मैं संपूजित करु हूँ॥१७॥ ओं ह्रीं अस्तिनास्तिप्रवादांगायाघम् । ज्ञानप्रवादमभिकोटिपदं तु हीनमेकेन वाणमितभानविवर्णनांक । कुज्ञानरूपतिमिरौघहरं समर्चे यत्पाठकैः क्षणमिते समये विचार्यम् ।। ६१८ ॥ एक घाटि कोटि पदवारा अरु पांच प्रकार ज्ञानका निरूपणका चिद अरु कुज्ञानरूपो तिमिर समूहनै हरनेवारा जो उपाध्याय स्वामी है तिनिनै क्षणमात्र कालमै विचारनेके योग्य ऐसा ज्ञानभवादने मैं पूजू हूँ॥१८॥ ों ही ज्ञानमवादांगायाघम् । . सत्यप्रवादमधिकं रसपादजातैः कोटीपदं निखिलसत्यविचारदक्षं । श्रोतृप्रवक्तृगुणभेदकथापि यत्र तं पूर्वमुख्यमभिवादय उक्तमवैः ॥ ६१६ ॥ Jain Educat onal For Private & Personal use only M enelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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