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________________ अतिष्ठा NER १८७ ओं ही स्वाध्यायतपोभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिनेऽर्घम् । विनश्वरे देहकृते ममत्वत्यागेन कायोत्सृजतोपि पद्मा सनादियोगानवधार्य चात्मसंपत्सु संस्थानहमंचयामि ॥ ५८१॥ देहकृत विनश्वर भावमें ममताका सागते कायाका छोडवावारे भी पद्मासन आदि योगर्ने अवधारित करि प्रात्मखरूप संपदा तिष्ठने वारे आचायनिन मैं पूजू हूँ॥५१॥ प्रों ही व्युत्सर्गतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्टिनेऽयं । येषां मनोऽहर्निशमार्तगैद्रभूमेरनंगीकरणाद्धि धये । शुक्लोपकंठे परिवर्त्तमानं तानाश्रये विंबविधानयज्ञे ॥५८२॥ अर जिनको मन रात्रिदिन आत्त ध्यान तथा रौद्रध्यानरूप भूमिकाका नहीं अंगोकार करनेते धर्म्यध्यान तथा शुक्लध्यानका दोन्यू पाद वत है तिन प्राचार्यनि. विंबप्रतिष्ठाका यज्ञमें प्राश्रय करू हूँ॥५२॥ _ों ही ध्यानावल वननिरताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घम् । येषां भ्रवः क्षेपणमाततोऽपि शक्रस्य शकत्वविघातनं स्यात् । एवंविधा अप्युदितकुधार्ती क्षमां भजते ननु तान् महामि ॥ ५८३ ॥ बहुरि जिनका भंवराका पटकवा मात्र ही इंद्रका इंद्रपणा बिगड़ जाय ऐसे शक्तिसंपन्न भी प्राप्त भई क्रोधरूप आर्वि मैं क्षमाभार हैं तिनने मैं पूजू हं। नों ही उत्तपक्षमापरमधर्मधारकाचार्यपरमेष्ठिनध्य । न जातिलाभैश्यविदंगरूपमदाः कदाचिजननं प्रयांति। येषां मृदिम्ना गुरुणाईचित्तास्ते दद्युरीशाः स्तवनाच्छिवं मे ॥ ५८४॥ BANTEREBRUA ISPRECENSPRECAMKRIS R Jain Education Anal For Private & Personal Use Only Bantainelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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