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प्रतिष्ठा
तारापतिं तरलभासुरशुक्लकांतिं संपूर्णविंबविगलत्सुधयातिरम्यं ॥ ७३३ ॥ अर पुष्पनिकी सुगंधमें मग्न है भ्रमर जिनमें अर लंबायमान स्थितियुक्त अर नवोन पवित्र मालाका युगलने देखत भई अर तरल दीप्तियुक्त श्वेतकांतिवारोअर संपूर्ण विवत झरतो अमृत करि रमणीक ऐसा चंद्रमाने देखत भई ॥७३३ ॥
दिग्सुंदरीवदनदर्शनदर्पणाभं ध्वांतछिंद रविमहर्मुखभासमानं ।
कभी स्वमंगलधियाग्रधरांगणस्थो पद्मच्छदावृतमखौ शचिनीरपर्णी ॥३४॥ अर दिशारूप नायकाका बदनका देखनेका दर्पण समान अर अंधकारने नाशनहारो अर प्रभातमें उदय होतो ऐसा सूर्यने देखत भई अर अपना मंगलकी बुद्धिकरि अग्र पृथ्वीका प्रांगणमें धरे अर कमलपत्रकरि ढके हैं मुख जिनके अर शुद्ध जलकरि भरे ऐसे कलशनिन देखत भई ॥७३४॥
मीनौ सरोवरजले जलजप्रसन्ने खेलाः कृतौ नयनयोरुपमानगम्यौ ।
रिंगत्तरंगततपद्मपरागगंधि दिव्यं सरोवरमदच्छुचिराजहंसं ॥ ७३५ ॥ __ अर कमलयुक्त सरोवरमें क्रीडा करते अर नेत्रको उपमायोग्य ऐसे मीन कहिये छोटे परसने देखत भई अर चंचल तरंगनिकरि विस्तृत कमलका पराग करि सुगंधित अर क्रीडा करता है राजहंस जामें ऐसो सरोवरने देखत भई ॥ ७३५॥
अक्षोभपूर्णसलिलप्लुतवाडवाग्नि रत्नाकर स्फटिकदर्पणवत्प्रभासं ।
सिंहासनं मणिखचद्वयपार्श्वकुड्यं सिंहैश्चतुर्भिरनुसंगतपादमूलं ॥ ७३६ ॥ अर अगाध परिपूर्ण जल करि डूबतो है बाडवानल जामै अर स्फटिकका दर्पण समान ऐसा समुद्ने देखत भई । अर मणिकरि खचित दोन्यू पखवाड़ा अरु भित्ति जाको अर च्यारि सिंहनिकरि च्यारि पाया धारण किया ऐसा सिंहासन देखत भई ॥ ७३६ ॥
नाकालयं मणिनिबद्धनभोऽवकाशं स्वर्गात्समागतमिव प्रभुसेवनार्थम् । नागेंद्रसद्मधरिणीहृदयाद् धेरैणं संदर्शनोत्सुकमिवोद्गतमंशुपिंडम् ॥७३॥
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