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________________ - अपना ही किया प्रात्ममभाव हेतु स्वयंप्रभु कहिये स्वतंत्र प्रभु अर सत्पुरुषनका हृदयमें प्रगट अरु मंगला नगरीका पति अरु चंद्रपा है | प्रतिष्ठा || चिह्न जाके ऐसा स्वयंप्रभ तीर्थकरने दम इहां महोत्सवमें पूजे हैं॥५५०॥ १७८ ओं ही स्वयंप्रभजिनायाघम् । श्रीवीरसेनाप्रसवं सुसीमाधीशं सुराणामृषभाननं तं। ईशं सुसौभाग्यभुवं महेशमचे विशालैश्चाभनवीनैः ॥ ५५१ ॥ श्रीमान् वीरसेना नामक मातात उत्पन्न अर सुसीमा नगरीका स्वामी अर देवनिमें ईश्वर अर सौभाग्यकी खानि ऐसा ऋषभानन नामक मद्देशने मैं नवीन पर विशाल नैवेद्यनिकरि अचू हूँ॥५५१॥ ओं ही ऋषभाननदेवायार्यम् । यस्यास्ति वीर्यस्य न पारमन्त्रे तारागणस्येव नितांतरम्यं । अनंतवीर्यप्रभुमर्चयित्वा कृतीभवाम्यत्र मखे पवित्रे ॥ ५५२॥ अर जाका पायको जैसे आकाशमें तारागणको पार नहीं है अर अतिशयकरि रमणीक ऐसा अनन्तवीर्य स्वामीने पूजिकरि इस पवित्र यज्ञमें कृतकृस होहूं ॥५५२ ॥ ओं ह्रीं अनंतवीर्यजिनायाम् । वृषांकमुच्चैश्चरणे विभाति यस्यापरस्ताद् वृषभूतिहेतुः। सूरिप्रभु तं विधिना महामि वार्मुख्यतत्त्वैः शिवतत्त्वलब्ध्यै ॥ ५५३॥ जाका चरणमैं बैलका चिन्ह उच्च प्रकार शोभित है, अग्रकालको धर्मकी विभूतिको कारण असा मूरिमभ जिनेंद्रनें जलादि द्रव्यनि है करि मोक्ष तत्त्वकी पाप्यर्थ पूजू हूँ॥५५३ ॥ ओं ही मूरिमभजिनायाघम् । PASSPEECHAKRECROCARPELAE MARA२ऊन %ACADAE%E १७८ Jain Education in For Private & Personal Use Only rary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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