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________________ प्रतिष्ठा २२७ यद्दत्तशेषमशनं यदि चक्रवर्तिसेनाऽपि भोजयति सा खलु तृप्तिमेति । क्षीणशक्तिललिता मुनयो दृगाध्वजाता ममाशु वसुकर्महरा भवंतु ॥ ७०२ ॥ अरु जाके अर्थ दियो भोजन कदाचित् चक्रवर्तीकी सेना भी भोजन करै सो भी तृप्तिनै प्राप्त होय ते अक्षीणमहानस ऋद्धिधारी मुनींद्र "मेरा नेत्रकमलका मार्ग प्राप्त हुवा संता आठ कर्मनिके हरनवारे होहु ॥ ७०२ ॥ नहीं अक्षीणमहानसर्द्धिप्राप्तभ्योऽर्घम् । यत्रोपदेशसरसि प्रसरच्युतेऽपि तिर्यग्मनुष्यविबुधाः शतकोटिसंख्याः । आगत्य तत्र निवसेयुरबाधमानास्तिष्टंति तान्मुनिवरानहमर्चयामि ॥ ७०३ ॥ अर जिनकी उपदेशसभा फैलावर हित होय तथापि तिसमैं कोटि सैकड्या मनुष्य अरु देव प्राय तहां सुखपूर्वक बाधारहित तिष्ठे तिनि मुर्नीनिने मैं पूज़ हूं ॥ ७०३ ॥ Jain Educationonal ह्रीं क्षीणमहालय ऋद्धिधार केभ्योऽर्घम् । इत्थं सत्तपसः प्रभावजनिताः सिद्धवृद्धिसंपत्तयो येषां ज्ञानसुधाप्रलीढ़ हृदयाः संसारहेतुंच्युताः । रोहिण्यादिविधाविदोदितचमत्कारेषु संनिःस्पृहा नो वांछंति कदापि तत्कृतविधिं तानाश्रये सन्मुनीन् ॥ ७०४ ॥ ऐसें समीचीन तपका प्रभाव से उत्पन्न भई सिद्धिऋद्धि हैं ते ज्ञानामृत पुष्टहृदय भर संसारीक प्रयोजनरहित होय हैं ते रोहिणी आदि महाविद्याकृत प्रभाव चमत्कारमै निःस्पृह कदापि तिनिका आश्रयनै नही बांछे तिनि मुनींद्रने मैं पूजू हूं ॥ ७०४ ॥ ह्रीं सकलऋद्धिस पन्नसर्वमुनिभ्यः पूर्णाघ । For Private & Personal Use Only पाठ: २२७ elibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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