SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिष्ठा २६६ Jain Education अर क्षीरस्रावी ऋद्धिधारी मुनिवरके चरणविंदयुगलका आश्रयत इस्तने प्राप्त विरस भोजन है सो दुधका रससंयुक्त वणवान् तथा स्वादवान् होय तिनि मुनींद्रका पूजन गुणरूप अमृतका पानकरि पुष्ट हम होहु ॥ ६८ ॥ भों ह्रीं सीरश्राविऋद्धिमाप्त भ्योऽघं । येषां वचांसि बहुलार्तिजुषां नराणां दुःखप्रघातनतयापि च पाणिसंस्था । भुक्तिर्मधुस्वदनवत् परिणामवीर्यास्तानर्चयामि मधुसंश्रविणो मुनींद्रान् ॥ ६६९ ॥ अरु नका वचन बहोत पीडायुक्त पुरुषनिका दुःखका घातनपणाकरि अरु जिनका हाथमें प्राप्त भोजन मधुर स्वादयुक्त होय. ते परिण मनमें पराक्रमधारी हैं तिनि मधुस्रावी मुनींद्रननिने मैं पूजू हूं ॥ ६६६ ॥ मधुश्राविऋद्धिप्राप्तभ्योऽर्घम् । रुक्षान्नमर्पितमथो करयोस्तु येषां सर्पिः स्ववीर्यरसपाकवदाविभाति । सर्पिराश्रविण उत्तमशक्तिभाजः पापाश्रवप्रमथनं रचयंतु पुंसाम् ॥ ७०० ॥ अरु जिनका हस्तमें अर्पित रुक्ष अन्न है सो घृतका रसरूप स्वपाकवान शोभित होय ते घृतश्रावी उत्तम शक्तिके धारी पुरुषनिका पापाश्रवकौं नाशनै रचौ ॥ ७०० ॥ onal ह्रीं घृतश्राविऋद्धिप्राप्त भयोर्घम् । पीयूषमावति यत्करयोर्धृतं सद् रूक्षं तथा कटुकमम्लतरं कुभोज्यं । येषां वचोऽप्युमृतवत् श्रवसोर्निधत्तं संतर्पयत्यसुभृतामपि तान् यजामि ॥ ७०१ ॥ अरु जिनका हातमें घरो हुवो रूक्ष अन्न तथा कटुक खाटो भो कुभोजन अमृतने श्रवे श जिनको वचन कणनिमें धान्य संतो प्राणीनिकू अमृतसमान तर्पित कर तिनि मुनींद्रनिने मैं पूजू हूं ॥ ७०१ ॥ ओं ह्रीं अमृताविऋद्धिमाप्तभ्योऽर्घम् । For Private & Personal Use Only पाठ २२६ elibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy