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प्रतिष्ठा
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अप्याशु नाशमयते नयनाविषास्ते कुर्वत्वनुग्रहममी कृतुभागभाजः ॥ ६६५॥ २२५ जिनको दूर भी दृष्टिरूप अमृतवर्षण जाके ऊपर पडि जाय तो तीव्र भी विष शीघ्र ही नाशकू प्राप्त होय है ते नेत्राविष ऋद्धिधारी ये तयनका भागने भोगिवावाली मेरे ऊपरि कृपादृष्टि करो॥६५॥
ओं ही दृष्टयविषऋद्धिमाप्तेभ्योऽयम् । ये यं ब्रुवंति यतयोऽकृपया मियस्व सद्यो मृतिर्भवति तस्य च शक्तिभावात् ।
येषां कदापि न हि रोषजनिघंटेत व्यक्ता तथापि यजतास्यविषान् मुनींद्रान् ॥ ६६६॥ अरु जे साधु रोषकरि जिसपति कहैं कि तू परि तो तत्काल मरिजावै ये कथन शक्तिखभावमात्र है उनके कदापि रोषकी उत्पत्ति नहीं व्यक्ति अपेक्षा घड़े तथापि शक्ति अपेक्षा है, तिनि मुनींद्र आशीविष ऋद्विारीनिन पूजन करो॥६६॥
ओं ह्रीं आशीविषऋद्धिमाप्त भ्योऽर्घम् । येषामशातनिचयः स्वयमेव नष्टोऽन्येषां शिवोपचयनात्सुखमाददानाः ।
ते निग्रहाक्तमनसो यदि संभवेयुर्दृष्टयैव हंतुमनिशं प्रभवो यजे तान् ॥ ६९७॥ अरु जिनका असाताको समूह आप ही नष्ट हूवो अर अन्यनिक कल्याणके देने” सुखकू देनेवारे हैं अर निग्रहमें पन करें तो दृष्टि ४] क्रूर करि मारिवेकू समर्थ हैं तिनि मुनींद्रने पूजू हं॥६६७॥
__ों ही दृष्टिविषऋद्धिमाप्तभ्योऽयम् । क्षीराश्रवर्द्धिमुनिवर्यपदांबुजातद्वंद्वाश्रयाद् विरसभोजनमप्युद्गश्वित् । हस्तार्पितं भवति दुग्धरसाक्तवर्णस्वादं तदर्चनगुणामृतपानपुष्टाः ॥ ६६८ ॥
CRUCCESCORRESP
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Jan Ede
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