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________________ प्रतिष्ठा १२४ Jain Educatio अथ सिद्धयंत्रोद्धारः ॥ ६ ॥ ऊर्ध्वाधरयुतं सविंदु परं ब्रह्मस्वरावेष्टितं वर्गापूरितदिग्गताम्बुजतटं तत्संधितत्त्वान्वितं । अंतः पल तटेष्वनाहतयुतं ह्रींकार संवेष्टितं अब सिद्धयंत्र कहैं हैं: देवं ध्यायति यः स मुक्तिसुभगो वैरीभकंठीरवः ॥ ३६२ ॥ ऊपरि नीचें रकार-युक्त हकार बिंदु सहित हूँ" ताकों ब्रह्म जो ॐकार अरु स्वरकरि वेष्टित करै, पीछें वलय में आठ कोष्ठक तिनमें अनासंयुक्त लिखै; ताके पार्श्व में रामो अरहंताणं लिखै अरु ह्रीं वेष्टित क्रौंकार रुद्ध करि ऐसा यंत्रात्मक देव घ्याव; सो वैरी रूप हस्तीन में शार्दूल सिह समान होय ॥ ३८२ ॥ दूसरा फल इह है कि यः सिद्धचक्रनिरतोऽर्हणमा करोति वैरित्रजं दहति कर्मसमूहसार्थं । श्रन्या च का बहुकथा शिवसौख्यलक्ष्मीः स्वैरं पदाब्जयुगले भ्रमरायतिद्राक् ॥३६३॥ विशेष अन्य कहा कहना, मोक्षलक्ष्मी स्वतः ही जो सिद्धचक्रकी नित्य पूजा करे है सो कर्मगणके सहित बैरी समूहनै भस्म करै है । ताका चरणारविंदमें भ्रमरसमान होय है ॥ ३८३ ॥ (इसका आकार पृथक् दिया गया है ) अथ बृहत्सिद्धचक्रयंत्रोद्धारः ॥ ७ ॥ अब बड़ा सिद्धचक्र महाफलदायक ताहि कहैं हैं ऊर्ध्वं रेफयुतं सर्विदुसरं मायावृतं पंचभिगुर्वाद्यक्षरकैः सहोमनिधनै र्वेदादिकैर्वेष्टितं । For Private & Personal Use Only पाठ १२४ library.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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