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________________ SOCIENCREASIEOGA -SARSONALESALCURRBARUSHISHASHA ही वेष्टय सपरं स्वरैरविमिते युक्तं ततोऽनाहतं युक्तं पंचपदैरनुप्रणवग्बोधेन वृत्तेन च ॥ ३६४ ॥ सम्यग्यूक्तपसा च होमनिधनेनास्यं ठकारावृतं वाह्ये षोडशभिः स्वरैः परिवृतं तेभ्योऽनुपत्राष्टकं । ओं ही अहंमनाहताक्षरमुखं वर्गाष्टकं होमयुक् यंत्रांतः प्रथमं च मंत्रमथ तत् पत्राग्रतोऽनाहतं ॥ ३६५ ॥ मायावेष्टितमंकुशेन नमितं पश्चात् ठकारावृतं ओं ह्रीं अर्हमनाहतादिगुरुभिः सर्वैर्नमोऽन्तैर्युतं । स्वाहांताय सुसिद्धचक्रपतये युक्तं ततोभः पुरं क्षोणीमंडलगं जगत्पतिशयं श्रीसिद्धचक्रं महत् ॥ ३६६ ॥ है वीज मध्य अरु असि आउ सा स्वाहा युक्त ह्रींकार ता करि आवृत, पुनः ह्रींकार तन्मध्य हकार चौदा खरनि करि युक्त, ताके बलय तामें पाठ कोठा तिनमें अनाहत युक्त णमो अरहंताणं तथा ये णमोकारका पंच पद अरु सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यकचारित्र चतुभ्यत नयो, ताके अग्र वलय ठकारको, ताके अग्र वलय स्वरांको, फिरि ताके अग्र वलय तामें षोडश कोठा तिनमें अष्ट वगै संयुक्त णपो अरिहंताणं अरु मध्य मध्यमें अनाहत विद्या, तदनंतर वलय तामें ठकार तदनंतर वलय तामैं अनाहत मत्रत्रय, फिरि ह्रींकार-चेष्टित क्रौं करि रोकना। पृथ्वीमंडल है सो वृहवसिद्धचक्र है॥३४-३६॥ अब याका फल कहिये हैं कि यः सिद्धचक्रमलघु प्रतिणौति रोगान् दुष्टान् निहंति शिवसौख्यरसायनानि । लब्ध्वोर्जयंतशिखरे तदनंतवीर्य स्वामीव वाक्प्रगुणतामनणु विभर्ति ॥ ३६७ ॥ CHECREGARMATHAKARE Jain Education For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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