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________________ ब प्रतिष्ठा ३२ - - FACRECOLOGEROCESSORORSE तबाध्वरं गतमधः खनित्वा तदोषवयं यदि तेन पांशुना। प्रपूरयेन्न्यूनसमाधिकेषु भगं समं लाभ इति प्रशस्यते ॥ २६ ॥ उस जगह एक हायभर गढ़ा खोदै ऊपर लिखे दोषेसे रहित हो तो यत्रादि पूजन विधिको करके फिर उसी धूलिसे उसे भर दे, यदि | वह गर्त कुछ कम भरै तब तो कार्य में उपद्रव प्रावैगा ऐसा समझना चाहिये यदि पिट्टी भरकर कुछ न वचे, बरावर हो जाय तो समान समझ | और मिट्टी गढा भरकर भी बच रहै तो लाभकी प्राप्ति समझना चाहिये ॥ १२६॥ सीम्नि प्रखाते प्रथमं शुभेनि घृतोद्भवं दीपमुपांशुमंः। सयोज्य तामे कलशे पिधाय न्यसेत् सयंत्र कनकं तदव्यां ॥३०॥ जब नीम खोदै तब प्रथम शुभ मुहूर्त में घृतका दोपक पद्धतिके मंत्रनिते प्रचलित करि फिरि ताक् ताम्रका कलशमें स्थापि अरू पाच्छादित करि उसके अधोभागमें सुवर्णका यंत्र स्थापन करे ॥ १३०॥ व्यपोहनं नो लभते प्रदीपस्तथा दृषद्भिः खनिताल(ई )कुडथे । नयेद् व्रतारंभनिवेदनादि कर्ता विदध्याजनसाक्षियुक्तं ॥ ३१ ॥ उस दीपक ऐसे स्थापन करै जैसे निर्वाण नहीं होय, पाषाण करि ऊर्चकुड्यो भित्ति स्थापन करै अरु पन्दिरकर्ता खापोः ब्रत अरु मन्दिरका प्रारंभमंगल अरु सज्जन प्रार्थना आदि अपने सहायीनिकी साक्षीपूर्वक करै ॥ १३१ ।। " तत्स्थानवासान्निखिलान्सुरादीन् संतोष्य पंचेशसुमंडलेन । पूजां विधायेतरदीनजंतून सन्मानयेत्कारुणिका महात्मा ॥ ३२॥ अर स्थानमें वसनेवाले समस्त देवादिने संतोषित करि अर्थात् प्राज्ञा लेय पंचपरमेष्ठीके मंडलकरि पूजा रचि गरीव दीन पाणिनिक करूणा पूर्वक वे महापुरुष सन्मान करें ॥ १३२ ॥ चैत्रादिमासे विषुवं प्रसाध्य दिग्मूढतापोहनपूर्वमन । ECRAॐ Jain Educati o nal For Private & Personal Use Only elibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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