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प्रतिष्ठा
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AURANGARMAEXPRECORRECSIR-150
से प्रकारको सुनयनिकरि धर्ममार्गका प्रकाशने करते अरु अतीचारकी बुद्धितें दूरवतते अरु प्रात्पविद्याके चक्रवर्ती ऐसे साधुपरमेष्ठीने या ना यज्ञमैं पूजू हूं ॥६३०॥
ओं ही अनृतपरियागमहाव्रतधारकायार्घम् । आकर्तव्ये (ध्वनि?) शिवपदगृहे रंतुकामाः पृथक्त्वं
देहात्मीयं करगतमिवाध्यक्षमादर्शयतः । । प्राणग्राहं तृणमपि परैरप्रदत्तं त्यजंत
‘स्तापंतां मां चरणवरिवस्याप्रशक्तं मुनींद्राः ६३१ ॥ कृतकृत्यरूप पोक्षमागगृहमें क्रीडा वांछक अर देह अर आत्मानै जुदा करणेवाले प्रत्यक्ष हस्ततलगत वस्तु समान देखनेवाले अर प्राणनिग्रहण होता भी अन्यकरि नहीं दिया तृणमात्रने भी त्यागते मुनींद्र सेवासशक्त मोने रक्षा करो॥६३१ ।।
ओं ह्रीं अचौर्यपहाव्रतधारकायार्यम् । तिर्यग्मामरगतिगता याः स्त्रियः काष्ठचित्रा
लेप्याश्मान्याश्चिदचिदुदधिस्थास्तवस्तास्त्रियोग। स्वप्ने जाग्रदिशि कतिचिदप्यर्तिमुद्राः स्मरंतो (?)
ये वै शीलं परिदृढमगुस्तान्यजेऽहं त्रिशुद्धया ॥ ६३२ ॥ चेतनमें तिर्यचिणी मनुष्यणी देवांगना गतिमें प्राप्त स्त्री तथा काष्ठ चित्राम लेप पाषाणकी स्त्री अचेतन ऐसे चेतन अचेतन समुद्रमैं। तिष्ठनेवारी जो हैं तिनने मन वचन कायतें स्वप्नमें तथा जाग्रतदशामैं कोई दशामें नहीं स्मरण करते गाढा शीलव्रतने प्राप्त मुनोंद्रनने मैं. त्रिशुद्धिकरि पूजू हूँ॥६३२॥
ों ही ब्रह्मचर्यव्रतधारकायाम् ।
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