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ओं हो पाश्रवतत्वस्वरूपप्ररूपाजनायाघम् ।
भों हीं आस्रवतत्त्वका निरूपण करनेवारौ जिनेंद्र अर्ध। कषायावृतचेतसान्यविषयं स्वत्वं कृतं तद्विधे
__ोग्याः कर्मविभावशक्तिसहिता ये पुद्गलाश्चात्मना । संश्लिष्टा अवगाहनैक्यमटितास्तत्प्रक्रमो बंधभाक्
तं छित्वा निजशुद्धभावविरतिप्राप्तः स मे स्तात् गुरुः ॥ ८६२॥ __ अर कषायकरि संयुक्त चित्तवाला पुरुषने अन्य वस्तुमें अपना आपा किया अर तिस कमेके योग्य अर कर्मनिका विभाव परिणत शक्ति | देनेवारे पुद्गल स्कंध हैं ते प्रात्मपदेशमें संश्लेष करै हैं अर एकावगाहरूप एकताने प्राप्त भये तिनिका कमै है सो बंध नाम भननेवारौ होय है अर उस बंधका प्रकारकूछेदि अपना भावनिकी शुद्धिने प्राप्त भयो सो मेरा गुरु होहु ॥८॥
ओं ह्रीं बंधतत्त्वस्वरूपप्ररूपकजिनायाघम् ।
ओं ही बंधतत्त्वका निरूपण करनेवारे जिनेंद्रकू अघ। तद्रोधः खलु संवरो निगदिता द्रव्यार्थभेदाद् द्विधा
तद्धेतुर्वतगुप्तिधर्मसमितिप्रेक्ष्या चरित्रात्मता । मूलं निर्जरणस्य कर्मविततेत्नागमस्य स्वयं
तद्रूपं कथितं गणेश्वरपुरोभागे स प्राप्तो मम ॥ ८६३ ॥ अर ता बंधतत्वका निश्चयकरि रोकना सो संवर द्रव्य भाव भेदत दोय भेदरूप को है पर उस संवरको परप कारण व्रत गुप्ति धर्म पर समिति अनुरक्षाचिंतन चारित्र रूपता है सो हो क संतानका नवोन आगमनका निजराका मूल है अर गणरादिकके अग्र याको खरूप जाने को सो प्राप्त मेरे मान्य है ॥८६॥
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