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________________ प्रतिष्ठा १५२ Jain Educatio सूर्याचंद्रौ मरुदधिपतिभूमिनाथोऽसुरेंद्रो यस्यां यब्जे प्रणतशिरसा लोलुठीति त्रिशुद्धया । सोऽयं लोके प्रवरगणनापूजितः किं न वा स्याद् यस्माद मुनिपरिवृढं स्वानुभावप्रसत्त्या ॥ ४६३ ॥ साधुलोको ऐसा है कि सूर्य अरु चंद्र तथा देवेंद्र चक्रवर्ती असुरेंद्र हैं, ते जाका पादपद्ममैं नम्र मस्तक करि मन-वचन-काय शुद्धि करि ठे हैं; सो अन्य प्राणी के पूजित क्यों न होय ? तातैं अपना कल्याणकी प्राप्ति अर्थ मुनि मान्यनैं पूजू हूं ॥ ४६३ ॥ ऐसें साधुलोको चमकू अर्थ देना ह्रीं साधुलोको मेभ्योऽर्धम् । aa प्राणिप्रवरकरुणा यल मिथ्यात्वनाशो ravina समान्वेषणां कामनष्टिः । यत्र प्रोक्ता दुरितविरतिः सोयमग्र्यः कथं न यस्माद्धर्मो निखिल हितकृत् पूज्यतेऽसौमपाऽपि ॥ ४६२ ॥ बहुरि जहां प्राणिनकी उत्तम दया है अरु जहां मिध्यात्वका नाश है अरु अंतमैं मोक्षमार्ग को वो अरु कायका नाश है, अरु जहां पापस विरति पूर्ण कही है सो धर्म समस्तनिकों हितकर्ता है, सो मैं करि भी पूजित है ॥ ४३४ ॥ ऐस लोकोत्तम धर्मकू श्रघ देनाह्रीं केव लिमज्ञप्तधर्मलोकोत्तमायार्धम् । जीवाजीवद्विविधशरणान्वेषणे स्थैर्यभगं ज्ञात्वा त्यक्त्वाऽन्यतरशरण नश्वरं मद्विधानां । tional इंद्रादीनामितिपरिचयादात्मरत्नोपलब्धि मिष्टैः प्राप्तुं निचितमनसा पूज्यतेऽर्हन् शरण्यः ॥ ४६५ ॥ For Private & Personal Use Only १५२ ainelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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