SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिष्ठा पाठ PRECISGAR १५३ बहुरि जीव अरु अजीव-रूप द्विप्रकार शरणका अन्वेषणमैं सर्वत्र अस्थिरता जानि अब मैं सारिखा इंद्रादिकका विनाशीक अन्य शरणनें छोडि करि अरु याही परिचयत आत्मरत्नकी प्राप्ति है, ऐसे इष्टकी प्राप्ति होयवेका इच्छावान् पुरुषले अरहंतशरण है सो दृढ़ मनसा करि पूजिये है॥ ४६॥ ऐसें अहंतशरणकू अर्घ देना ओ हीं अईच्छरणेभ्योऽयम्। याबदेहे स्थितिरुपचयः कर्मणायात्रवेण __तावत्सौख्यं कुत उपलभेऽतस्ततस्त्रोटनेच्छुः । एतत्कृत्यं न भवति विना सिद्धभक्ति यतो मे ___ पूर्णा?घप्रयजनविधावाश्रितोऽहं शरण्यम् ॥१६६॥ बहुरि यावत इस देहमैं स्थिति है अरु प्राय द्वार कारि कानको आस्रव है, तावत पर्यंत मैं सुखभावकू कैसे प्राप्त होवू १ अरु मैं इस कर्म-सतानकू तोड़नेकौं इच्छक हूँ, परंतु यो कार्य सिद्धकी भक्ति विना नहीं होय, ता कारण पूर्ण अर्घका पूजन-विधिमैं जो असल शरण है ताहि पाश्रित भयो हूँ॥४६६॥ ऐस सिद्धशरणकू अर्घ देना ओं ही सिद्धशरणायाघम्। रागद्वेषव्यपगमनतो निःस्पृहा धीरवीराः संसाराब्धौ विषमगहने मज्जतां निर्निमित्तं । दत्त्वा धर्मोद्धरणतरणिं पारयंतो मुनीशा स्तानघेण स्थिरगुणधिया प्रांचयामि त्रिगुप्त्या ॥ ४६७॥ बहरि रागद्वेषका नहीं होवात धीर वीर अरु निस्पृह ऐसे हैं, ते विषम गंभीर संसार-समुद्र में डूबतेन धर्म-रूप उदार जिहाजनँ देय करि पार करें हैं, तिन मुनीशनकू स्थिर गुणबुद्धिः तीन गुप्ति करि पूज हूं ॥४६७॥ ऐसे साधुसरणकू अर्घ देना ओं ह्रीं साधुशरणेभ्योऽयम् । ARRANGAROKARAN - LSORR4.4%ACCID JanEducation For Private & Personal Use Only S inelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy