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________________ प्रतिष्ठा १६३ गुणोद्देशादेषा प्रणिधिवशतोऽनंतगुणिनां ___कृता ह्याचार्याणामपचितिरियं भावबहुला । समस्तान् संस्मृत्य श्रमणमुकुटानर्घमलघु प्रपूर्त संदृब्धं मम मखविधि पूरयतु वै ॥६०२ ।। सर्व गुणनिका उद्देश अरु अध्यवसायके वशते या अनंत गुणयुक्त आचार्यनिकी किई पूजा है सो बहुभाव संयुक्त हुई सती समस्त मुनिनिमै मुकुट समान आचार्यनि स्मरण करि यो परिपूर्ण अघ रच्यो संतो मेरा यज्ञकी विधिनै पूर्ण करो॥६०२॥ ओं ह्रीं अस्मिन् प्रतिष्ठोद्यापने पूजाहमुख्यषष्ठवलयोन्मुद्रित आचार्यपरमेष्ठिभ्यस्तदगुणेभ्यश्च पूर्णाम् । ओं ह्रीं ऐस प्रतिष्ठाके उत्सवमै छट्ठा वलयमें स्थापित आचार्य परमेष्ठीकूअर उनके गुण अर्घ देना। SAA% PRACTICE-%ERHIRGASHOKASI ERATOR अथ सप्तमवलयस्थापितोपाध्यायगुणपूजाप्रारंभः । कोष्ठाः पंचविंशतिः २५ । तथाहिअब सप्तम वलयमें स्थापित उपाध्याय परमेष्ठी तिनका श्रुताश्रित अर्घ २५ पच्चीस है सो ऐसे श्राचारांगं प्रथमं सागारमुनीशचरणभेदकथं । अष्टादशसहस्रपदं यजामि सर्वोपकारसिद्धयर्थं ॥ ६०३ ॥ प्रथम श्रावकनिका आचरणका भेदन कहनेवारो अरु अट ठारह हजार पदयुक्त आचारांगने सर्व उपकारको सिद्धि अर्थ मैं पूज ह ॥६॥ ओं ह्रीं अष्टादशसहस्रपदकाचारांगाय अर्घम् । सूतकृतांगं द्वितयं षट्त्रिंशत्सहस्रपदकृतमहितं । Jain Education For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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