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________________ प्रतिष्ठा HEARCRECORRECTOR ASSORR अन्यायसर्वस्वकुभुक्तिकुत्सामिथ्याप्रलापादिविमोचनं च । पूर्व प्रयोगेष्वतिचारमृष्टिः स्वतस्तवास्त्येव किमर्थमन्यैः ॥४८॥ अरु अन्याय सर्व धन, कुभोजन, निंदा-मिथ्यामलाप आदिको त्यागकर, अर पूर्व प्रयोग ग्रहण किये हैं तिनमें अतीचारकी मष्टि कहिये || साग स्वतः ही तेरे है। अन्य कार्यन करि कहा है ? ॥२४८॥ इत्याद्यभिप्रायवशादुदीर्य व्रतगृहः सद्गुरुणोपदेश्यः । मंत्रण बद्धांजलिमस्तकाभ्यां यज्वेंद्रकाभ्यामपरैविधायः॥१९॥ इत्यादि अभिप्रायका वसते उदीरित करि व्रतका ग्रहण है सो गुरुनै उपदेश करना योग्य है अरु मन्त्रपूर्वक बांधी है अंजली जाम ऐसा मस्तकसयुक्त यजमान अरु इंद्रजे हैं तिनने तथा अन्यने वो उपदेश धारण करने योग्य है ॥२४॥ ओं ह्रीं अह अहसिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुसमक्षकं दृढ़ब्रत समारूढ़ भवतु स्वाहा यावत्कलासमाप्तिस्तावदर्थितभंगेन पालयितव्यमिति मंत्रेण व्रतदानं कुर्यात् ॥ मंत्र ये है-ओं ह्रीं अह अह सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुसमक्षकं दृढव्रतं समारूढ भवतु भवतु स्वाहा ॥ मा याका अर्थ-श्री अहंत आदि पांच परमेष्ठीकी साक्षीने व्रत किया सो गाढ तेरे होइ। ऐसे नियम यावत्कार प्रतिष्ठा विधिकी समाप्ति न होइ तावत् ग्रहण करावै। इत्थं वदंतं प्रणिपत्य भक्त्या स्वीयं कृतार्थं ननु मन्यमानः। अभ्यर्च्य पुष्पांजलिना स वोवीं नयेत्करिस्पंदनयानवाह्य ॥५०॥ अपनेकू कृतार्थ मानता यजमान या प्रकार बोलतो गुरु जो है ताहि भक्ति करि नमस्कार करि अरु पुष्पांजलि आदि करि पूजि हस्तीका रथरूप वाहन करि जहां प्रतिष्ठाकी भूमि है ता-अति ले जावे ॥२५॥ SRUGSA- HILAKESIRECIBE ENT Jain Education Lana For Private & Personal Use Only Jelbrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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