SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिष्ठा ५६ Jain Educade ऐसे विनीत यजमानकरि प्रार्थनारूप कियो ऐसो अरु प्रमाणीकृत कहिये अंगीकृत कियो है संस्तवादि जानें असा प्रशंसनीय गुरु ह सो हू अपनी समर्थता श्ररु यज्ञ-सामग्रीकी विधि कू निष्कपट भावकरि वा यजमानकू प्रतिबोध करे ।। २४३ ॥ नितांत जनकोटिमध्ये एकेन धन्येन धनं वृषार्थे । वितीर्यते तत्र च सत्प्रतिष्ठाविधौ जिनानामुदये प्रकर्षे ॥ ४४ ॥ सो ऐसेकि बड़ा हर्ष है कोडि मनुष्यनिमें कोई एक धन्य पुरुषने अपना अतिशय धनकू धर्मनिमित्त वितीर्ण कीजिये है कि दीजिये है अरु तहां भी उदयकरि उत्तम ऐसा जिनेश्वरकी प्रतिष्ठाका विधान में अर्थात् ऐसा उत्तम कार्यकी कहा कहानी १ ॥ २४४ ॥ प्रधानभव्येषु सहस्रकोटिमनस्विचित्तेषु विवृद्धमिष्टं । पुण्यांकुरं तत्स्वकुलांशुमांस्त्वं प्रशंसनीयः किमु वाक्प्रभेदेः ॥ ४५ ॥ इस प्रतिष्ठा पुण्य कार्यमें अतिउत्तमता दिखाने हैं कि, हे भव्य ! तुमने कोटि सहस्र मनस्वीनका चित्तमें अरु प्रधान 'भव्यनिमें बांछित पुण्यको कुर वृद्धि प्राप्त कियो, तातें तुम अपना कुलको प्रकाशक सूर्य हो और वचनका प्रवचन कहा ? ।। २४५ ॥ तुभ्यं परं स्वस्ति मयाऽभ्यधायि व्रतं गृहाणाखिलकर्मसिद्धये । पूर्वं गृहीतेष्वभिवृद्विपुष्टिर्यथाभवेत्त्वं कुरु तत्तथैव ॥ ४६ ॥ इस हेतु मैं तेरे अर्थि उत्कृष्ट कल्याण विधान कियो । अव समस्त कर्मकी सिद्धिके अर्थ तू व्रत ग्रहण कर, अरु पूर्व व्रत ग्रहण किया, तिनमें तेरे वृद्धि अरु पुष्टि होउ तथा तैसे होउ ॥ २४६ ॥ ational यावत्प्रतिष्ठासमयावतीर्णो न स्यादपब्रह्मचतुः कषायाः । श्रन्यायभुक्तिर्वसनाशनानां वर्ज्या त्रिकालं समताग्रहेण ॥ २४७ ॥ रु यावत् प्रतिष्ठा समय से पारंगत न होय, तावत कुशील सेवन अरु क्रोध-मान-माया लोभ अरु अन्य सजातीयके भोजन अरु अन्यका वस्त्र भोजन ग्रहण करना वर्जनीक हो अरु त्रिकाल सामयिकको ग्रहणसहित होउ ॥ २४७ ॥ For Private & Personal Use Only पाठ ५६ nelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy