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पाठ
प्रतिष्ठा
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स्वस्तिमंत्रपरिपाठनपूर्वमाशिषां ततिमवाप्य हितार्थो ।
श्रोत्रियेण विहितक्रिययाऽमू यज्ञयोग्यपरिकर्मभृतौ स्तः ॥ ५५ ॥ या प्रकार स्वस्ति मन्त्रनका पठन पूर्व क गुरुदत्त हितकारी आशीर्वादका समूहने प्राप्त होय करि आचार्यकरि करी क्रिया करि इंद्र अरू यजमान ये दोन्यू प्रतिष्ठाका योग्य कार्यमें सावधान होय हैं ॥२५५ ॥
__ों ही अर्ह असि पा उ सा णमो अरहनाणं सप्तद्धिसमृद्धगणधराण अनाहतपराक्रमस्ते भवतु । ह्रीं नमः । अनेन मंत्रेण स्नातयोरुपरि पुष्पाततक्षेप आचार्येण कार्यः।
अभिषेकका मन्त्र या प्रकार है-ओं ह्रीं अहं असि आ उ सा णपो अरहताणं सप्तदिसमगणधराण अनाहतपराक्रमस्ते भवतु भवतु ह्रीं नमः॥ | अर्थ श्री पंचपरमेष्ठी अरु णमोकार अनादि सिद्ध मंत्र अरु सात ऋद्धिके धारक गणवरदेवके साक्षी अतुल पराक्रम तेरे होउ ॥ या मन्त्र करि इंद्र यजमान इनि दोन्यू परि आचार्य पुष्प अक्षत क्षेपे ।
आर्या उपवासमेकभक्तं तदिवसे संविधाय भावनया।
वैषष्टिस्मरणकथानिपुणः पंक्त्यां तु वर्जयेद् भोज्यं ॥ ५६ ॥ उस दिन इंद्र यजमान उपवास नथा एक वखत भोजन करि तथा व सठ सलाका पुरुषनिको कथा करि अपना भाई पुत्र आदिकी पंक्तिमें भोजन वर्जित करे॥२५६ ॥
तत्प्रभृति सोऽपि याजकवर्यो मघवाऽऽज्ञया गुरुदिशा विचरेत् ।
दानाध्ययनपरार्थिषु भक्त्या चेहानयेत्संघ ॥ ५७ ॥ ता दिनसे सो यजमान इंद्रकी आज्ञा करि गुरुकी परिपाटीका उपदेश करि दान अध्ययन परोपकार विष प्रवत तथा संघ बुलावे २५७॥
यद्वंश्यतीर्थकरविंबमुदीर्य संस्था मुख्या तदीयकुलगोलजनिप्रवेशात् । संवृत्तगोलचरणप्रतिपातयोगादाशौचमावहतु नोद्यभवप्रशस्तं ॥ ५८ ॥
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