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________________ प्रतिष्ठा ३०५ PUCCECAAIDIOSAUGARCISHEROINDIA तता महार्पण सुवाह्यघोषपुरस्सरेण विकलोकभर्तुः । महामहं कुर्युरनर्घ्यपालार्पितेन शांति प्रपठेयुरिष्टाम् ॥ ११॥ तदन्तर सुंदर वादित्रका शब्द पुरस्सर सुवर्णादि पात्रमें स्थापित महामह अर्घ करि त्रिलोकनाथका परम उत्सव करै अर शांति पाठ पढे, ४ इष्टसिद्धि कर॥११॥ ओं हीं सकलयज्ञाधिकृतजिनदेवगुरुश्रुतादिसकलदेवताभ्योऽप॑म् । ___अत्र प्रतिष्ठासमाप्तौ प्राचार्यवासवयजमानैः कायोत्सगंपूर्वकं भक्तिपाठाः विधेयाः। निर्वाणभक्तिरेव निर्वाणकल्याणारोपणं । साक्षातु न विधेयं स्मरणीयमेवेति दिक। ल! ओं हीं सकलयज्ञमें आहूत जिनमुनि श्रुत आदि सकल देवताके अर्थि अघ। अब इहां प्रतिष्ठा विधिकी समाप्तिमै प्राचार्य, इंद्र, यजमान येह तीन्यू कायोत्सर्ग पूर्वक पूर्वोक्त भक्तिपाठ करने योग्य हैं। अर पंचकल्याणमें च्यारि कल्याण तो विधानसंयुक्त किया अर पंचमकल्याण मोक्षकल्याण है सो निर्वाण भक्तिपाठमात्र ही आरोपण करना, | साक्षात विधान नहीं करना, स्मरणमात्र ही है, ऐसा अनिर्वाच्य समझि लेना। नित्यपूजाविधानार्थं स्थापयेन्मंदिरे नवे । पुराणे वा तत्र भांडागारे संस्थापयेद् धनं ॥ १२ ॥ ग्रामहट्टक्रयेणैव निर्दोषेण विधीयताम् । पूजाकृत्यं सेवकादिपालनं साधुतर्पणं ॥ ६१३ ॥ रथयात्रां पुराकृत्वाऽभिषेकमहनीयतां । संपाद्य संघसद्भक्तिं कुर्वीत याजकोत्तमः ॥ ६१४ ॥ अर रथयात्रा पहलीकरि अभिषेकको उत्सव संपादनकरि संघकी वैयावृत्ति यजमान करै॥१४॥ जिनांह्रिस्पर्शसत्पूतामाशिषं परिगृह्य च । CARSANE AARAKSHARA ३६ Jain Educ tional For Private & Personal use only a nelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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