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प्रतिष्ठा
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ऋद्धिप्रवृद्धिविहितात्मगुणप्रकर्षा मुक्तावलीप्रभृतिघोरतपोऽभियुक्ताः ।
ते साधवः शमदयादमधैर्यशीलाः स्तुत्या भवंतु दुरितक्षपणाक्षमायै ॥ ८ ॥ अर्थ-अर साधु परमेष्ठी हैं ते नानाप्रकार ऋद्धिनिकी वृद्धिकरि कीये हैं प्रात्मगुणका प्रकर्ष जिनने तथा मुक्तावलि तथा रत्नावलि आदि * घोर तप करि युक्त ऐसे समभाव दया इंद्रियदमन और धैर्य स्वभाववान मेरा पापका विनाशरूप क्षमाके अर्थि स्तुति करने योग्य होऊ ॥८॥
चैत्यालयानां मनसा विचिंत्य माहात्म्यमारात् तदनूनभक्त्या ।
स्वांतप्रकाशं प्रणिपत्य मूर्धा पीठस्थली संप्रति पूजयामि ॥ ९॥ अर्थ-समस्त अकृत्रिम कृत्रिम चैत्यालयनिकौ माहात्म्य शीघ्र बहु भक्ति करि मनमें आदरपूर्वक चितवनकर अपना मनमें प्रकाशरूप मस्तक करि नमनकरि तिन चैत्यालयपतिकी पीठभूमि जो ताहि प्रत्यक्ष पूजूहूँ॥६॥
शिखरिणी छंदः। जिनानां विंबानि प्रकटितपराम्नायमहितैः कृतान्यक्लप्तानि त्रिभुवनजनानंदकरणात् ।
प्रमह्यानि प्रोचेहरिमनुजचकेश्वरगणनमस्यामो भक्त्या समवसरणस्थेश्वरधिया ॥१०॥ अर्थ-उत्कृष्ट प्रगट किये हैं उत्तम आम्नाय जिननें ऐसे महाव्रतीनिकरि प्रशंसा करनेयोग्य ऐसे श्रावकवरनिकरि किये अथवा अकृत्रिम जिनेन्द्रदेवनिका विव कहिये प्रतिमा तीन जगतका पाणीनके आनन्दका करवात प्राचीन इन्द्र नरेंद्र चक्रवर्ति आदि उत्तम गणकरि पूजित जे हैं तिनमें समवशरणमें विराजमान परमेष्ठी ही हैं ऐसी बुद्धि करि भक्तिभावधरि नमस्कार करूंह ॥१०॥
द्रुतविलंवित छंदः । विशदबुद्धिरियं गुरुभक्तितो भवतु मे श्रुतवारिधिपारदा ।
भगवती परमेश्वरगीर्यया वरविधानविधौ कुशला भवेत् ॥ ११॥ अर्थ-श्री गुरु कुदकुदादिकी भक्ति करि या शास्त्रसमुद्रका पार देनेवारी भगवती दिव्यबाणी निर्मल वुद्धिरूप करौ या करि परमेश्वरः अहंतकी वाणी शुभ विधानका दानमें निपुण होय ॥११॥
ARUARUNARHRISTIAN
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