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________________ प्रतिष्ठा १०८ Jain Education मला चायविंबे तु तदग्रभूमौ कल्याणयोगाद्धरणं विधेयं । भावानुरूपाऽऽत्मनि शक्तिरिष्टा गौणार्पिता न्यायसमागमेन ॥ ३४८ ॥ और विशेष इह है कि पर्वत भित्तिमैं उकीरा अचल विंग निर्माण करिये तो ताका अग्रभागम कल्याण कल्पना अथवा याग मंगल आदिको उद्धार करो। इस आत्माम अपने भावानुकूल गौण मुख्य विधि करि अनंतशक्ति कथित है सो इष्ट है ॥ ३४८ ॥ प्राणप्रतिष्ठाप्यधिवासना च संस्कारनेत्रोच्कृतिसूरिमंलाः । मूलं जित्वाऽधिगमे कियाऽन्या भक्तिप्रधाना सुकृतोद्भवाय ॥ ३४६ ॥ इहां प्राण-प्रतिष्ठा मंत्रविधि अरु अधिवासना मंत्रविधि अरु नेत्रोन्मीलन संस्कार कहिये अंक स्थापन अरु सूरिमंत्र, ये विधि सर्वज्ञत्व मुख्य है । अन्य विधि पुण्यानुबंध देनेवारी क्रिया भक्तिविशेष निमित्त है। अर्थात् आवश्यक विधि सर्व विवनमें करनी, अन्य क्रिया मूल व करनी, अर्थात् प्राण-प्रतिष्ठा आदि तौ होय ही अरु पंचकल्याणकादि विधि स्वभावसिद्ध है ॥ ३४६ ॥ विधाय गर्भान्वयसत्क्रियादिं यागोपकार्याध्वरमंडलार्चाम् ! मेरी कृतस्नानविधिं जिनेंद्रं पूर्वत्र वेद्यां तु नयेन्मरुत्वान् ॥ ३५० ॥ अरु तिन विधि गर्भान्वय क्रिया आदि अरु यज्ञ-मंडल यज्ञपूजा अरु मेरुपै स्नान कराय स्थापन पूर्व वेदीमें इंद्र करे ।। ३५० ॥ इति विज्ञानयनविधानम् । होमार्थकुंडानिपुरोत्तरस्याः क्रियान्नवोत्कृष्टतया च पंच । मध्याद्विधेर्वा वयमेव तल वृत्तं त्रिकोणं चतुरस्रमेव ॥ ३५१ ॥ For Private & Personal Use Only पाठ १०८ library.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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