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________________ । प्रतिष्ठा - २१६ RECTREATMA%ECRECE%%ESCRICS अरु जंघाचारण व्यग्निशिखाचारण पुष्पचारण पत्रचारण तंतुचारण वीजचारण श्रेणीचारण ये अपने अपने समाजकरि निमित्तपात्र | चारण अंकधारी हैं ते ये क्रिया परिणत ऋदिधारी अपनी शक्तिकरि संभावनायुक्त मुनींद्र यहां यज्ञमें पूजाने प्राप्त होउ ॥६७४ ॥ भों ही जलजंघातंतुपुष्पपत्रवीजश्रेणीवहन्यादिनिमित्ताश्रयचारणऋद्धिमाप्तभ्योऽयम् । श्राकाशयाननिपुणा जिनमंदिरेषु मेर्वायकृत्रिमधरामु जिनेशचैत्यान् । बंदत उत्तमजनानुपदेशयोगानुद्धारयति चरणौ तु नमामि तेषां ॥ ६७५ ॥ अरु जे आकाशगमनमें निपुण अरु जिनमंदिरनिमें मेरु आदि अकृत्रिम पृथ्वीमें जिनेंद्र चैत्य हैं तिनन बंदना करते अरु उपदेशके योगते उत्तम भव्यजननें उद्धारते हैं उनका चरणकूमैं नमू हूँ॥६७५॥ ओं ही आकाशगमनशक्तिचारणद्धिमाप्त भ्योऽर्घम् । ऋद्धिः सुविक्रियगता बहुलप्रकारा तत्र द्विधाविभजनेष्वणिमादिसिद्धिः।। मुख्यास्ति तत्परिचयप्रतिपत्तिमंत्रान् यायज्मि तत्कृतविकारविवर्जितांश्च ॥ ६७६ ॥ का अरु विक्रियागत ऋद्धि बहोत प्रकार है तिनमें दोय प्रकार विभागमें अणिमादि शक्ति मुख्य है तिनका परिचयकी प्राप्तिके मंत्ररूप अरु ताका किया विकारकूनही च हते तिनिमुनींद्रनै पूजू हूं ॥६७६ ॥ ओं ही अणिमामहिमलघिमगरिममाप्तिमाकाम्यवशित्वेशित्वऋद्धिमाप्त भ्योऽर्ष। अंतर्दधिप्रसुखकामविकीर्णशक्तिर्येषां स्वयं तपस उद्भवति प्रकृष्टा । तद्विक्रियाद्वितयभेदमुपागतानां पादप्रधावनविधिर्मम पातु पाणिं ॥ ६७७॥ तघन आदि पर कामेच्छाचारी नाना शक्ति जिनके स्वतेही प्रकृष्ट तपका प्रभावतें प्रकट होय है सो विक्रियाका दसरा भेदनै प्राप्त भये ।। तिनका चरणपूजाविधि है सो मेरा इस्तने पवित्र करो॥६७७॥ ओं ही विक्रियायां अंतर्धानादिऋद्धिमाप्त भ्योऽयम् । EARCAREFRASTRAKASHAREPOSTS - २१६ Jain Educatio n al For Private & Personal use only helibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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