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________________ पाट दिव्या वाग् जनसौहृदं प्रतिपदं सर्वाङ्गगोलारुहा भूरादर्शतला मृदुस्वसनसन्मोदौ तु भूः शालिनी। सौरभ्यांबुधरी सुवृष्टिरमला पादकमाधोतले । . स्वच्छांभोरुहनिर्मितिः खममलं दिग्समदश्चक्रकं ॥ ८७२ ॥ धर्माख्यां पुरतश्च सज्जनमनोमिथ्यात्वसंस्फेटनं देवाहवानपरस्पराधिकमुदा सन्मंगलाष्टाविति । दिव्यातीशयसंयुतो जिनपतिः शक्राज्ञया रैमुचा क्लुप्ते श्रीसमवादिसंस्मृतिपदे संतिष्ठवांस्तान्मुदे ॥ ८७३ ॥ अर दिव्यध्वनि अर मनुष्य प्राणीमात्रकै मंत्री अर सर्वऋतुके फलपुष्प संयुक्त वृक्ष अर कंटकरहित भूपि अर मंद सुगंध पवन अर सवधान्यसंपन्नक्षेत्र अर गंधोदक दृष्टि अर भगवानका विहार समय चरण तल कमल रचना, आकाश निपल अर दिशाको प्रमोद अर धर्मचक्रका अग्रगमन अर जनका हृदयतें मिथ्यात्वभाव विरति अर देवकृत परस्पर आह्वान, अर मंगलाष्टक ऐसे येह देवकृत अतिशयसंपन्न इंद्रको प्राजाकरि कुवेरदेवने रच्या समवसरण में विराजमान जिनपतिदेव है सो आनंदके अर्थि होहु ॥८७२-८७३॥ . ओं ह्रीं नमोऽहते भगवते चतुर्दशदेवकृतातिशयसंपन्नाय जिनाया। नों ही देवनैमित्तिक चौदह अतिशय संपन्नके अर्थि अर्घ देना। ततः समवशरणमंडले प्रतिमां नीत्वा तत्र पूजां कुर्यात् । तदनंतर समवसरण मंडलमें प्रतिमा स्थापि पूजा करै। मानस्तंभसरः सपुष्पविपिनं सत्खातिका चाभितः प्राकारादिसुनाट्यभूमिविपिने नाकालयमारुहाः। YिAADEVAR । - RECOLOURNARABAR Jain Educati o nal For Private & Personal Use Only library.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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