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सम्यक्त्वं चरितं सुवोधनदृशी वीर्य ददिर्लाभको
भोगोपादिभुजी हि यस्य नवकं लब्धेः सदा क्षायिकं । संपन्नं खलु केवलोद्गमनतस्तं सांप्रतं ध्यायतो
विघ्नानां निचयः प्रणाशनमियात्तत्संस्मृतिप्रार्थनात् ॥ ८७० ॥ क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, अनंत ज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत वीर्य, अनंतदान, अनंत लाभ, अनंत भोगोपभोग, या प्रकार लब्धिनिका नवक जाके केवल ज्ञानोत्तर प्रगट भया ताका स्मरण प्रार्थनते विघ्ननको समूह नाशने प्राप्त होइ ॥८७०॥
ओं ही नमोऽहते भगवते नवकेवललब्धिभ्योऽयम् । ओं ह्रीं नवकेवललब्धिके अर्थि अघ देना। सौभिक्ष्यं मुकुरोपमक्षितिरथो व्योमक्रमप्रक्रमः
प्राण्याघातविनिर्गमश्च कवलाहाव्यपायः परैः। अक्लेशोपचयश्चतुर्मुखदृशिविद्यश्वरत्वं तनो
रच्छायत्वमकेशवृद्धिरिति वै दिकसंख्यकाः केवले ॥ ८७१ ।। बहुरि सुभिक्षता अर दर्पण समान पृथ्वी अर आकाशको क्रम निर्मलत्व अर पाणिमात्र बधका अभाव अर कवलाहारका अभाव अर उप४.सर्गाभाव अर चतुर्मुखत्व अर सर्व विद्याका ईश्वरत्व अर शरीरकी छयाका नहीं होना अर नख केस वद्धिको अभाव ऐसे केवलज्ञानका दश अतिशय है ॥८७१॥
ओं ही नमोऽहते भगवते दशकेवलातिशयेभ्योऽयम् । नों ही केवलाविशयका अर्घ देना।
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