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________________ प्रतिष्ठा - सत्प्रातिहार्येनिजचिन्हभासुर संकारयेद्विबमथार्हतः शुभं ॥ १८॥ या प्रकार श्री अहतका बिंब समीचीन लक्षणसंयुक्त अरु शांतभावकूबधावनेवारा, संपूर्ण अंगोपांग शुद अरू दिगंबर स्वरूप अष्ट प्रातिहायनिकरि संयुक्त अरु अपना अपना चिन्ह करि भासमान कराणा योग्य है ॥१८॥ सिद्धेश्वराणां प्रतिमाऽपि योज्या तत्प्रातिहार्यादिविना तथैव । प्राचार्यसत्पाठकसाधुसिद्धक्षेत्रादिकानामपि भाववृद्धथै ॥ १८१ ॥ और सिद्ध परमेष्ठीका प्रतिबिंब भो प्रातिहार्यविना स्थापना योग्य है अरु शुभभावकी वृद्धिके लिये आचार्य परमेष्टी अरु उपाध्याय अरू साधु अरु सिद्ध क्षेत्र आदिकी प्रतिमा योग्य होय ॥१८॥ नासाग्रदत्तक्षणमुग्रतादिदोषैरपेतं जिनबिंबमा । अंगाधिके हीनतनौ प्रकर्तुर्नाशाय स्यादत एव यत्नः ॥ १८२॥ इस प्रकार अपनी नासाग्रदृष्टि अरु क्रूरतादि दोपनिकरि रहित जिन विंब पूजने योग्य है। अर अंग हीन वा अधिक होय तो कर्ताका अर्थात पूजकका नाशके अर्थि होय है इस हेतु प्रतिमानिर्माणमें यत्न ही परिपूर्ण श्रेष्ठ है ॥१२॥ विस्तारतोऽस्य प्रथितुं समीहा चेच्छ्रावकाचारत ऊहनीयं । न मृत्तिकाकाष्ठविलेपनादिजातं जिनेंद्रेः प्रतिपूज्यमुक्तं ॥ १८३ ॥ और इस अंगोपांगकी रेखा चिन्ह आदि विस्तारसे जाननेका इच्छुक होय सो श्रावकाचार मूल अंगसैं विचार करना योग्य है और मृतिका काष्ठ अरु चित्राम आदिका जिनबिंब पूज्य नहीं कया है ॥१८३॥ CASUREAUCRACS - library.org Jain Educatio n al For Private & Personal Use Only
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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