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प्रतिष्ठा
२४८
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तज्ज्ञोऽष्टाभिः सलिलकुसुमाद्यैश्च पूजां दधातु ॥ ७६४ ॥
र यजमान उस समय जन्म कल्याण उत्सव में नगर में प्राप्त दोन अर अनाथ जनकू वांछित अर्थ युक्त करि तोषित करिअर पूजा अर पूजाकी रचनाकी बुद्धि करि जन्मकल्याण की परंपरातें चोईस जिनको मंडल समंत्र लिखें तहां जत्र पुष्प आदि अष्ट द्रव्यनिकरि जिनेंद्रकी पूजा करें ॥ ७६४ ॥
मेरावभिषवधिया दुग्धपाथोऽधिजातेर्नीींरैरष्टप्रगतशतकैः स्वर्णकुंभोद्धृतैर्वा । हस्त्यारूढं सुरपतिकृतोत्संगसंस्थानमन्यै
रिंदैर्देवैरपि सह हरिः स्नापयत्वीशमिष्टं ॥ ७६५ ॥
बहुरि उत्तर दिशामें पूर्व रचित मेरुमें अभिषेक बुद्धि करि चोर समुद्र के उत्पन्न जलकर एकसो आठ सुवर्ण कलशनि करि ऐरावत गजेंद्र पर आरूढ अर इंद्र को गोद में तिष्ठता प्रभूने सोधर्मेंद्र अन्य इंद्रनिकरि सहित होय स्नान करावो ॥ ७६५ ॥
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नृत्यारंभो जयजयरवो वाद्यनादः प्रमोदो
गानं शच्या स्त्रिदशवनितासंगतं चाटुवाक्यं । द्यावाभूमीमलविगमता स्नानपाथोधिलौल्यं
यादृग्जातं मम किमु धराधर्तुरेवाप्यवाच्यं ॥ ७६६ ॥
अर उस समयका नृत्यका आरंभ तथा जयध्वनि तथा साढ़ा वारा कोटी जातिका वादिनिका वजना तथा देवों का हर्ष तथा इंद्राणीका गीत ज्यों देवांगनासहित हाय है तथा परस्पर प्रमादका प्रवचन तथा आकाश ग्रह पृथ्वोको निर्मलता तथा स्नान समुद्रकी चंचलता जैसा हुआ सो मैं कहा कहिसकू, धरणें द्र भी हजार मुखसै नहीं कह सके है ॥ ७६६ ॥
पांडुशिला तदल पृथुले सिंहासने मध्यगे
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पाठ
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