SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिष्ठा २१४ Jain Education In अथ नवमवलयस्थापिताष्टचत्वारिंशदऋद्धिधारक पूजाप्रारंभः । to कोष्ठाः श्रष्टचत्वारिंशत् ४८ । तथाहि अथ नवम वलयमें स्थापित अडतालीस ऋद्धिधारक मुनिका पूजन करिये है। तहां कोठा ४८ हैं । सो ऐसें है— त्रैलोक्यवर्तिसकलं गुणपर्ययाढ्यं यस्मिन्करामलकवत् प्रतिवस्तुजातं । भासते विसमयप्रतिबद्धमर्चे कैवल्यभानुमधिपं प्रणिपत्य मूर्ध्ना ॥ ६५८ ॥ बहुरि तीन लोकवर्ती समस्त गुण पर्यायसहित वस्तुमात्र है सो जाका करतलमें आंवला समान त्रिकालसंबंधी भार्से है ऐसा केवलज्ञान सूर्यरूपी स्वामीने मस्तक करि नमस्कारकरि मैं पूजू हूं ॥ ६५८ ॥ ह्रीं सकललोकालोकप्रकाशक निरावरणकैवल्यलब्धिधारकेभ्योऽर्यं । ओं ह्रीं सकल लोकालोकप्रकाशनसमर्थ केवलज्ञान धारकनिके अर्थ अर्धम् । वक्रर्जुभावघटितापरचित्तवर्तिभावावभासनपरं विपुलर्जुभेदात् । ज्ञानं मनोऽधिगतपर्ययमस्य जातं तं पूजयामि जलचंदनपुष्पदीपैः ॥ ६५६ ॥ अरुका वा सरल भावनिकरि घटित परका चित्तमैं वर्ते सा भावनिका प्रकाशमें तत्पर अह विपुलमति ऋजुमति भेदते मनःपर्ययज्ञान के हुवा है ता मैं जल चंदन पुष्प दीपनिकरि पूजू हूँ ॥ ६५६ ॥ ओं ह्रीं ऋजुमतिविपुलमतिमनःपर्ययधारकेभ्योऽर्घम् । देशावधिं च परमावधिमेव सर्वावध्यादिभेदमतुलावमदेशपृक्तं । ज्ञानं निरूप्य तदवाप्तियुतं मुनींद्रं संपूज्य चित्तभवसंशयमाहरामि ॥ ६६० ॥ For Private & Personal Use Only पाठ २१४ brary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy