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बतिष्ठा
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ऊर्ध्वोष्ट, ओं ओं नया अधोदन्ते, जो औं नमः ऊर्ध्वदन्ते, ओं अं नमः मूर्ति, ओं अः नमः जिह्वाग्र, ओं कं नमः दक्षवाहुदंडे, ओं खं नमः दक्षवाहुमध्यसंधो, ओं गं नयः दक्षवाहुनाटोसंधी, ओं घं नमः दक्षकरांगुलिसंधौ, ओं ऊँ नमः दक्षकराग्रे, ओं चं नयः वापवाहुदंडे, ओं छ नमः वापवाहुपध्यसंधी, ओं जं नमः वामहस्तनाडोसंधी, ओं झं नमः वामहस्तांगुलिसंधौ, ओं अं नमः वामहस्ताग्रे, ओं टं नयः दक्षपादपध्य- || संधौ, ओं ठं नमः दक्षपादसंघो, ओं डं नमः दक्षपादगुल्फे, भोंढं नमः दक्षपादमूले, ओं णं नमः दक्षपादाय ॥ एवं वामपादे तवग न्यस्य पार्थादिकुक्ष्यंत पवर्ग न्यस्थ, हृदि यं, दतोसे रं, ककुदिलं, वापशि वं, हृदादिदक्षकरे शं, हृदादिवापकरे षं, हृदादिदतपादे सं, हृदादिवामपादे हैं, हृदादिजठरे लं, हृदादिवदने तं न्यसेत् । पिंडस्थधर्म्यध्यानमिद। आगें कहैं हैं कि येह न्यास कहां करना;
आचार्येण सदा कार्यः क्रियां पश्चात्समाचरेत् । श्रीमुखोद्धाटने नेलोन्मीलने कंकणोज्झने ॥३७८ ॥ सूरिमंत्रप्रयोगे चाधिवासने च मुख्यतः ।
कृत्वैव मातृकान्यासं विदध्याद्विधिमुत्तमं ॥ ३७६ ।। आचार्य जो हैं तानें येह न्यास सदा ही करने योग्य हैं। पश्चात् श्रीमुखोद्घाटनमै अरु कंकणमोचनमैं क्रिया करनी। तथा मूरिमंत्रका | प्रयोगमें अधिवासन विधिमै मुख्यता करि मातृकान्यासनै करि उत्तम विधि करै॥३७८-३७६ ॥
नांदी यस्मिन् दिने क्लुप्ता तदादि प्रत्यंहमनु ।
अनादिसिद्धं जपतां सिद्धिलक्ष्मीश्च वर्धते ॥ ३८०॥ बहुरि जा दिनमैं नांदी-विधान कल्पना किया, ता दिनसैं अनादिसिद्ध मंत्र प्रतिदिन जपनेवारेन लक्ष्मी अर सिद्धि-वृद्धि प्राप्त होय है॥३८॥
अथ मातृकामंत्रः। ओं नमोऽहं अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋल ल ए ऐ ओ औ अं अः क ख ग घ ङ च छ ज क ब. ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह, क्लीं ह्रीं क्रौं स्वाहा ॥१०८॥ इति ॥
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