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________________ भविष्ठा १२१ Jain Educatio ऊर्ध्वे ऋद्धिधरा विनेयमुखनुत्यंताचतुः षष्टिकाः ह्रीं वेष्टयगजशस्त्रकृद्रुधिहरं यं तं सुशांतिप्रदं ॥ ३८४ ॥ मध्य कणिका 'हे' ऐसा पंच परमेष्ठीका बीज है, ताके ऊपरि वलयमै अनादि मंत्र १ लिखना, ता ऊपरि वलयमै चतुर्विंशति तीर्थंकरका नाम अरु ता ऊपरि वलयमै चौंसठ ऋद्धि के धारक मुनीनका मंत्र अर 'ही' कार वेष्टित क्रौंकार' रुद्ध करना ॥ ३८४॥ अव फल कहैं हैं:घोरारिदुःखजनितामपराधजातां लूताज्वरत्रणभगंदरकासपीडां । वाधां व्यपोहति समर्चितमेतदाशु शांतिप्रदं परममंत्रनिरूपणेन ॥ ३८५ ॥ घोर वैरीके दुःख र अपराधसें उत्पन्न वाधा, लूता कहिये मकड़ी आदिका विष, ज्वर, व्रण, भगंदर, काश इत्यादिकी पीडानें दूरि करे है, अर पूजन किया परम मंत्र जो णमोकार मंत्र करि शांतिनै देवै है ॥ ३८५ ॥ (श्रीशांतियंत्रका श्राकार पृथक दिया गया है) अथ पूजायंत्रोद्धारः ॥ ३॥ अब पूजा-यंत्र कहै हैं— विघ्नहर यंत्रक ताम्रपत्र पर लिख वेदी में अन्य प्रतिष्ठ य मूर्तिनिके समीप स्थापित करें। अन्य यंत्र भी जिन जिन कल्याण विधिनिमें उपयुक्त होगे उनको आगे स्पष्ट लिखेंगे। १६ मध्येनाहतलोकभर्तृजठरेऽर्हद्भ्यो नमस्तधृते कोष्टानां नवके प्रपूज्य विततिः स्याच्चैत्यचैत्यालयाः । वाणी धर्मविधी चतुर्थविभजा भक्त्यादिनुत्यंतकाः ऋद्धमिदं महाकृतौ यंत्रं विमुक्तिप्रदं ॥ ३८६ ॥ For Private & Personal Use Only १२१ www.jainelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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