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प्रतिष्ठा
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स्फूर्जन्मयूखविततिप्रहतांधकारं दीपं घृतादिमणिरत्नविशालशोभं।
उद्भिन्नशुक्लयुगलांतिमभागभाजो देहातिं द्विगुणकाटियुतां करोमि ॥८५७॥ बहुरि देदीप्यमान किरण समूहकरि दुरि किया है अंधकार जाने पर घृत अर मणिरत्नकरि विशाल है शोभा जिसमें ऐसा दीपकनै...... अर प्रकट भया शुक्रध्यानका युगलका अंतिम भागकू भजनेवारा जिनेंद्रकी देहकांतिने गुणित कोटियुक्त करू हूँ॥॥
. ओं ही प्रज्वल प्रज्वल अमिततेजसे दोपं गृहाण गृहाण स्वाहा। कपूरचंदनपरागसुरम्यधूपक्षपोऽस्तु मे सकलकर्महतिप्रधानः।
इत्येवभावमभिधाय हसंतिकायामुक्षेपयामि किल धूपसमूहमेनं ॥ ८५८ ॥ अर अगर चंदनका परागकरि रमणीक धूपको छेपिवो मेरा सकल कर्मनिका हनिबेमें प्रधान होह। इसी ही भावने अंगीकारकरि धूपका समूहने सिघरी विषै क्षेपू हूँ ॥॥
__ों ही सर्वतोदह दह तेजोऽधिपतये समूहभूताय धूपं गृहाण गृहाण स्वाहा । कर्माष्टकापहरणं फलमस्ति मुख्यं तत्प्राप्तिसम्मुखतया स्थितवानसि त्वं ।
यस्मादनेकगुणलास्यकलानिधानधाम्नस्तवस्थलमदभ्रफलैर्यजामि ॥५६॥ . कमका अष्टकका अपहरण है सो मुख्यफल है, अर वांका सन्मुखपणाकरि हे भगवान तुम तिष्ठो हो, यात अनेक गुणका विलासकलाका निधानभूत गृहरूप जो तुम ताका स्थलभागने बहुत प्रकार फलनिकरि मैं पूजू हूँ॥५६॥
नों ही आश्रितजनायाभिमतफलानि ददातु ददातु स्वाहा।। त्रैलोक्याभपदं त्रिकालपतिताशेषार्थपर्यायजा.
नंतानंतविकल्पनस्फुटकर संसारचकोत्तरं ।
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