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________________ प्रतिष्ठा Jain Education 6% नादिको तथा प्रमाणकी व्यवस्था जहां अवधि पाप्त ऐसी सभंगवाणी है सो द्रव्यानुयोग व्याख्यान निरूपणकरि प्रथम मोनमार्ग जिनने अभिधान कियो है। ह्रीं द्रव्यानुयोगवेदस्वरूपप्रकाशकाय जिनायाघम् । नों ह्रीं द्रव्यानुयोग निरूपण समर्थ जिनेंद्र अर्ध । श्रीमंस्त्वद्भक्तिभारप्रविनतशिरसः केचिदिच्छंति मुक्तिं ते सद्यः साधुदीक्षाप्रणयनपटवस्त्वत्प्रसादावलंबात् । केचिच्छंति धर्मं गृहपतिनिरुतं रुद्रमार्गावरूढं स्वामिन् हस्तावलं कुरु शरणागतान् रक्ष रक्षेशनाथ ॥ ६०४ ॥ अर हे श्री भगवान् ! तेरी भक्तिका भारकरि नमायो है शिर जिनने ऐसे कितनेक भव्य मुक्तिको इच्छा करें हैं ते भव्य तत्काल ही तेरे उपदेशका आलंबन मुनिदोक्षाका साधनमें प्रवीण होय हैं । श्रर कितनेक भव्य गृहस्थ में युक्त अर ग्यारा प्रतिमामें आरूढ ऐसा धर्मने बांछे है । तात हे स्वामिन् तुम ही संसारमें डूबते प्राणीनिकू हस्तका अवलंबन देउ र शरण प्राप्त भये हें तिनकू हे ईश ! हे नाथ! रक्षा करहु रक्षा करहु ।। ६०४ ॥ ह्रीं मुनिश्रावकधर्मोपदेशकजिनायार्घम् । ह्रीं मुनिश्राव रूप द्विविधधर्मरूपक जिनेंद्रके अर्थ अ एवमिंद्रः समागत्य स्तुतिमालाचितक्रमं । fear विहारार्थं प्रस्तावमकरोत्सुधीः ॥ ९०५ ॥ अथ सुबुद्धि इंद्र महाराजा ऐसें आगमनकरि अनेक स्तुतिनिको माला करि पूजित है चरणारविंद जाका ऐसा श्रीभगवानने नमस्कारकरि विहारक्रियाकी प्रस्तावनाने करतौ भयौ ॥ २०५ ॥ ततः जिने द्रवित्र किंचित्प्रचाल्य विहारक्रम उद्देश्यः । For Private & Personal Use Only पाठ ३०२ brary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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