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________________ भतिष्ठा २२६ SHRECTOBERRBERG सहस्रं सप्तनवतेरेकाशीतिश्चतुःशतं ॥ ७०८ ॥ एतत्संख्यान् जिनेंद्राणामकृत्रिमजिनालयान् । अत्राहूय समाराध्य पूजयाम्यहमध्वरे ॥ ७०६ ॥ अरु आठकोडि छप्पन लाख सत्ताणवै हजार च्यारिस इक्यासो एतत्संख्यावारे जिनेंद्रके अकृत्रिम जिनालय जे हैं तिनिनै इस यज्ञमें द आह्वाननकरि अरु समाराधनकरि मैं पूज हूँ॥७५-७०६॥ ओं ह्रीं अष्टकोटिषट्पंचाशल्लतसप्तनवतिसहस्र वतुःशत एकाशीतिसंख्याकृत्रिमजिनालयेभ्योऽर्घम। यो मिथ्यात्वमतंगजेषु तरुणान्नुन्नसिंहायते एकांतातपतापितेषु समरुत्पीयूषमेघायते । श्वभ्रांधपहिसंपतत्सु सदयं हस्तावलंबायते स्याद्वादध्वजमागमं तमभितः संपूजयामो वयं ॥ ७१० ॥ अरु जो मिथ्यात्वरूप हस्तीनमैं युवान अरु भूख करि पोडित दुष्ट सिंह के समान है अरु एकातरूप प्रातापकरि तलायमाननिमैं पवनसंयुक्त मेघके समान है अरु नरकरूप कुवामें डूबते प्राणीनिमैं सदय होय तसं हस्तका आतंबन देनेवारा है जैसा स्याद्वादरूप ध्वजायुक्त आगम जो है ताहि सर्वत्र हम पूजै हैं ॥७१०॥ ओं ह्रीं स्याद्वादमुद्रांकितपरमजिनागमायार्घम् । जिनेंद्रोक्तं धर्म सुदशयुतभेद त्रिविधया स्थितं सम्यक्ररत्नत्रयलतिकयाऽपि द्विविधया । प्रगीतं सागारेतरचरणतो ह्येकमनघं दयारूपं बंदे मखभुवि समास्थापितमिमं ॥७११॥ __ अरु दशभेद संयुक्त उत्तमक्षपादिरूप अरु सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र प्रकारतें तीन प्रकार अरु मुनि श्रावक भेदत दोय प्रकार अरु द्याला निःपापकरि एक ऐसा जिनधर्मनै यज्ञभूमिमै स्थापन प्राप्त हूवान मैं बंदू हूँ॥११॥ ALLSCREAAAAACHOKESARBA R ECRANEEKA Jain Educati o nal For Private & Personal Use Only Mainalibrary.org.
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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