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________________ UNREGISREPOARD मिष्टाज्यदुग्धादिरसापवृत्तः परस्य लक्ष्येऽप्यवभासनेन । त्यागे मुदं चेष्टितमत्ययोगाद् धर्तृन् गणेशाधिपतीन् यजामि॥१७॥ पिष्ट लवण दुग्ध घृत आदि रसका निस पलटावकरि वर्तनेते अरु परका लक्ष्यमें भी नहीं भासवनेत सागभागमें आनंद जो है वारि चेष्टा करि भी नहीं जतावनेतें धारण करते असा आचार्यनिनें पूजू हूँ॥५७४॥ ओं ही रसपरित्यागतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽयं । दरीषु भूधोपरिषु श्मशाने दुर्गे स्थले शून्यगृहावलीषु । शय्यासने योग्यदृढासनेन संधार्यमाणान् परिपूजयामि ॥ ५७५॥ अर पर्वतनिके दराडनिमें तथा पर्वतका मस्तकनिमें तथा श्मशानमैं तथा अन्य विकटस्थलमैं तथा शून्य गृहपंक्तिमें योग्य गाढा आसन करि शय्या प्रासन जो है तिनने धारण करते आचार्य परमेष्ठीनिने मैं पूज़ हूँ॥५७५॥ नों ही विविक्तशय्यासनतपोभियुक्ताचायपरमेष्ठिनेऽयं । ग्रीष्मे महीधे सरितां तटेषु शरत्सु वर्षासु चतुष्पथेषु । योगं दधानान् तनुकष्टदाने प्रीतान् मुनींद्रान् चरुभिः पृणामि ॥१७६ ॥ ग्रीष्मऋतुमे पर्वतनिका उपरिम भागमें अर शरत कालमें नदोनका तटमें अरु वर्षामें चौहटा योगर्ने धारण करता असे शरीरका कष्टका देनेमें प्रसन्न मुनींद्र आचार्यनिन नवेद्यनि करि तर्पण करू हूँ॥५७६ ॥ ओं ही कायले शतपोभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽयं । संभाव्य दोषानुनयं गुरुभ्य आलोचनापूर्वमहर्निशं ये। तच्छुद्धिमात्रे निपुणा यतीशा संवर्घदानेन मुदंचितारः॥५७७॥ A SURES P१८५ www.jainelibrary.org Jain Educati o For Private & Personal Use Only nal
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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