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________________ %3 प्रतिष्ठा पा RIRIT २५५ KHARCHASACEXD1%GRAM ऐसी निसरती प्रेमको धाराको जल करि प्रक्षालित किया है भगवानका चरण कमल जाने अर्थात् नपस्कारका करवा करि मस्तक नयावता चरणनि परि नेत्र पढ़ें तब नेत्रनिका जलकरि पक्षाल होते ही ऐसा भाव जानना पर मंगल तथा पवित्रपणाका इक्कुक पर विधिको नियता ऐसो ॥८॥ क्रियाकलापसंवेत्तुरीश्वरस्येश्वरक्रियाः। संस्कारयामास पुनर्मलप्रांशुभिरुत्तमैः ॥७६ ॥ तथाहिइंद्र महाराज है सो उत्तम उत्तम मंत्रनि करि सकल क्रियाका समूहने जाननवाला ईश्वर भगवानको संस्कार क्रिया जे हे तिनिने पुनरुक्त ही निवतन करतो भयो ॥७६०॥ __ ओं ह्रीं इक्षाकुकुले नाभिभूपतेमेरुदेव्यामुत्पन्नस्यादिदेवपुरुषस्य ऋषभदेवस्वामिनोत्र विंबे समांकितत्वात्तद्गुणस्थापनं तेजोमयं करोमि स्वाहा। सो ऐसे-ओं ही इच्वाकुलमें नाभि राजा अरु मरुदेवीसे उत्पन्न प्रादिदेव श्री ऋषभदेव स्वामीका इस विवमें वृषभका चिन्ह वाका गुणोंको स्थापन तेज स्वरूप करू हूं। ____ओं ऋषभादिदिव्यदेहाय सयोजाताय महामज्ञाय अनन्त चतुष्टयाय परमसुखातिष्ठिताय निमंत्राय स्वयंभुवे अजरामरपदमाशाय चतुर्मुखपरमेष्ठिनेऽहते त्रैलोक्यनाथाय त्रैलोक्यपूज्याय अष्टदिव्यनागपूजिताय देवाधिदेवाय परमाथसंनिहितोऽसिः स्वाहा ।प्राभ्यां मातमाया अंगानि संस्पृशन गुणाधिरोपणं कुर्यात् । ओं अस्मिन् विवे निःस्वेदत्वगुणो विलसतु स्वाहा ॥१॥ नों अस्मिन् जिने मलरहितत्वगुणो विलसतु स्वाहा ॥२॥ ओं अस्मिन् जिने तोरवणेरुधिरत्वगुणो विलसतु स्वाहा ॥३॥ भों अस्मिन् जिने समचतुरस्त्रसंस्थानगुणो विलसनु स्वाहा ॥४॥ ओं अस्मिन् जिने ववषभनाराचसंहननगुणो विलसतु स्वाहा ॥५॥ 3 tic- A - २५५ Jain Educati o nal For Private & Personal Use Only I m ainelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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