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________________ प्रतिष्ठा १२ sesG RESS RECRORORSCORESCRIBE अथ महर्षिपर्युपासनम्। ऐसें अर्घ पाद्य करि महर्षिनकी उपासना करिये हैं, औषधीरसबलर्द्धि तपःस्था क्षेत्रबुद्धिकलिताः क्रिययाढयाः । विक्रयर्धिमहिताः प्रणिधानप्राप्तसंसृतितटा मुनिपूज्याः॥ २६॥ औषधि-ऋद्धि अर रसऋद्धि-जनक तप करि युक्त, क्षेत्रऋद्धि अरु बुद्धिऋद्धि करि संयुक्त, क्रिया नायक ऋदि तथा विक्रियादि| करि पूजित अरु अपना अनुभव करि प्राप्त किया है संसारका पार जिननें, ऐसे मुनीनम पूज्य जयवंते रहो ॥२०॥ केवलावधिमनः प्रसरांगाः वीजकोष्ठमतिभाजनशुद्धाः। वीतरागमदमत्सरभावा बोधिलाभमनघाः प्रदिशंतु ॥ २६१॥ अरु केवलज्ञान अवधिज्ञान अर मनःपर्ययज्ञानका फैलावका अंग संयुक्त अरु वीज-बुद्धि-कोष रूप भाजन करि शुद्ध, अरू गये हैं राग-1 मद-मत्सरभाव जिनके, ऐसे महर्षि निःपाप हमारे अर्थि ज्ञानलाभन देवो ।। २६१॥ यद्वचोऽमृतमहानदमन्ना जन्मदाहपरितापमपास्य । निर्ववुः सुखसमाजतटेषु बोधिलाभमनघाः प्रदिशंतु ॥ २६२॥ जिनके वचनामृतरूपी महानदमें मग्न होनेवाले भव्य जीव जन्ममरणके दाह (संताप) से छुटकर परप सुखको प्राप्त करते हैं, वे पाप रहित मुनिराज हमें ज्ञानलाभ देवै ॥२२॥* श्रोत्रभिन्नमतयः पदपंथाः दृष्टसंमृतिपदार्थविभावाः। तत्त्वसंकलितधर्म्यसुशुक्लाः बोधिलाभमनघाः प्रदिशंतु ॥ २९३ ॥ * इस श्लोक का अर्थ हस्तलिखित प्रतिमें न बहने के कारण हमने लिख दिया है। -सपादक, BSIRSANAMOSAMRACHCOMREKHA For Private & Personal Use Only R Jain Educatiliational elibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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