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________________ प्रतिष्ठा भवकोटिसमुत्थमेनसां निचयं स्फेटदमेयदर्शनम् ॥ १६ ॥ अथ - ये पुरुष बदरीफलमात्र जिनवित्रकाहू प्रतिष्ठापन करें हैं ते पूर्व हृदय में नहीं प्राप्त भया असा अर कोटि भवसे उत्थित भया सा पापा समूहने स्फेटन करनेवाला अनुपम सम्यग्दर्शनको प्राप्त हूजिये हैं । भावाथ - बदरीफल मात्र जिनविंनकी शांत मुद्राका ध्यान करि सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होय है ॥ १६ ॥ तीर्थादौ भरतेश्वरेण भगवत्सन्देशनालब्धितो गार्हस्थ्ये रसखंडमंडलघनैरष्टापदे निर्मितः । चैत्यानां निवस्तु तल जिनराडूविंवानि संस्थापितान्येवं भूतभविष्यदैहिककलां पूज्येश्वराणां पृथक् ॥ १७ ॥ अर्थ-प्रथम चक्रवर्ती जो है ताने तीर्थकी आदि केवलज्ञानरूप अतिशय तीर्थमें गृहस्थाश्रम दशामें श्रीभगवान ऋषमेश्वरका उपदेशका खंड मंडलका अतुल धनकरि कैलाश गिरि मध्ये चैयनिका समूह निर्माण किया अर वहां जिनेन्द्र प्रतिबिंव स्थापन किया असे भूत वर्तमान भविष्यत तीर्थ करोंका न्यारा न्यारा विंव अथवा चैयालय स्थापित कीया ॥ १७ ॥ लाभ तीर्थेऽजितेशः सगरादिभिस्तथा कृता प्रतिष्ठा जिनसद्मनां शुभा । अनादिसन्तानभवा स्वरूपसत्प्रतिक्रियालम्भनभावतः स्मृता ॥ १८ ॥ अर्थ-अर दूसरा श्री अजिततीर्थंकरका अवसर में सगरआदि महाभव्योत्तमने जिनमंदिरनिको शुभ प्रतिष्ठा को असें अनादिकालका संतान उत्पन्न हुई आत्मीक स्वरूपको समीचीन प्राप्ति करानेवारी भावनिकरि स्मरण कियी जानो ॥ १८ ॥ साक्षाश्चिदानंदघनाभिरामे या देवबुद्धिः किल तत्स्वरूपं । दृष्ट्वा तदस्मरणं न किं स्यादेवं तयोर्वै चिदचित्प्रभेदः ॥ १६ ॥ अर्थ - इहां साक्षात् तीर्थंकरका दर्शन में अर धातु पाषाणमयताका विच समानता दिखाये हैं। निश्चयकरि साक्षात् चिदानंद घन तीर्थंकरका शरीरमें देवपनाकी बुद्धि है सो ताका स्वरूप जो प्रतिबिंब देखिकरि ताको स्मरण नाहों होय कहा ? अर्थात् होय हो होय | याप्रकार तिन दोऊमें चेतन अचेतनको भेद है। अर्थात् अन्य भेद नाहीं ॥ १६ ॥ धन्याः पूर्वजनुः प्रवाहमहितोत्साहा धराभूषणा मानौनत्यदयादमादिगुणिनः पुण्यानुबंधोदयाः । Jain Educationonal For Private & Personal Use Only पाठ ६ Melibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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