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________________ प्रतिष्ठा २१२ ओं ही कृतकेशलोचनियमधारकसाधुपरमेष्टिभ्योऽयं । एकद्विलिप्रभृतिदिवसप्रोषधादिप्रकर्तु रास्यम्लानिर्भवति नितरां दंतशुद्धिं विनाऽत्र । दौगंध्याधुं वपुषमकृतस्थैर्यमापन्निदानं जानन् योगं मलिनयति नो तं समर्चे मुनींद्रम् ॥ ६५४ ॥ एक दोय तीन आदि दिवसमैं प्रोषधोपवास करनेवालाके निरंतर मुखकी मलिनता दंतशुद्धि विना होय है। अरु दोगध्यको कूप अरु नहीं है स्थिरता जामै अरु आपदाको स्थान असा शरीरने जानतो योग जो अपना ध्यान ताने नहीं मलिन करै है ता मुनींद्रन पूजू | ओं ही दंतधावनवर्जननियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽर्घम् । यांचादैन्योदरविघटनादींगितादीनि येषां निर्मूलंतो मनसि चमनालाभलाभांतराये । (?) तुल्या दृष्टिस्तदपि सकृदेकादिभुक्तिप्रमाण तेषां धावगमसुगमत्वाय पादौ यजामि ॥ ६५५ ॥ अरु जिनकै याचना अर दीनता अर उदरका लिपिसना आदि चेष्टित निर्मूल है अरु मनमैं भोजनका अलाभ तथा अंतरायमै तुल्य 2 दृष्टि है सो भी एक दिनमें एक वार भोजनको प्रमाण धर्मध्यानका सुगमपणाकी प्राप्ति अर्थि है तिन साधूनिका चरणने मैं पूजू SOLARSAESASARAA%BABECARROTue ओं ही एकभक्तनियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽघ । यावद्देहं स्थितिधृतिधराशक्तिमंगीकरोति Jain Educatio n al For Private & Personal Use Only (L elibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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