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________________ प्रतिष्ठा ८८ SPEOPLEAVCAMECHAR द्विधा तपोभावनया प्रवीणान् स्वकर्मभूमिधविखंडनेषु । विविक्तशय्यासनहर्म्यपीठस्थितान तपखिप्रवरान् यजामि ॥ २७७॥ दोय प्रकार, अतरंग अरु वाय जो तपकी भावना करि सावधान अरु कर्य-रूप पर्वतनिका खंडन निपुण अरू एकांत शय्यासन रूप प्रासादकी पीठ परि स्थित असे तपस्वीन प्रवर जे, तिनन में पूजूंह ॥२७७॥ ____ओं ह्रीं घोरतपश्चरणोयुक्तप्रयासभासमानान स्वकारुण्यपुण्यपुण्यागण्यपण्यरत्नालंकृतपादान साधुपरमेष्ठिनः पूजयामि स्वाहा ।। अर्घ ॥ - अर्हन्मंगलमर्चे सुरनरविद्याधरैकपूज्यपदं । तोयप्रभृतिभिरविनीतमृ| शिवाप्तये नित्यं ॥ २७८ ॥ सुर-नर-विद्याधरनि करि पूज्य हैं पद जिनके असे अहंत मंगलजलादि अष्ट द्रव्यनि करि नम्र पस्तक करि मोक्ष प्राप्ति निमित्त हा पूंजूहूं ॥२८॥ ओं ही अन्मंगलाय अर्घम् । ध्रौव्योत्पादविनाशनरूपाखिलवस्तुजाननार्थकरं । सिद्धं मगलमिति वा मत्वाचे चाष्टविधवसुभिः ॥ २७६ ॥ धौव्य-उत्पाद-व्यय रूप जो अखिल कहिए समस्त वस्तु वा पदार्थ जानवा करि तत्वका कहनेवारा अरहंत रूप मगल. असा मानि || अष्ट द्रव्यनि करि पूजू हूँ॥२६॥ असे सिद्ध मंगलके अर्घ अर्थ देना __ओं ही सिद्धमंगलाया। यदर्शनकृतविभवाद रोगोपद्रवगणा मृगा इव मृगेंद्रात् । - Jain Educati o nal For Private & Personal Use Only library.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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